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जन-रत्न
तत्पश्चात् वे दोनों को उत्तरके चौक में लेजाकर सिंहासनपर बिठाती हैं । वहाँ वे अभियोगिक देवताओं के पाससे क्षुद्र हिमवंत पर्वत से गोशीर्ष चंदनका काष्ठ मँगवाती हैं । अरणिकी दो लकड़ियोंसे अनि उत्पन्न कर होममें योग्य तैयार कियेहुए गोशीर्ष चंदनके काष्ठसे होम करती हैं। उससे जो भस्म होती है उसकी रक्षापोटली कर वे दोनों के हाथोंमें बाँध देती हैं। यद्यपि प्रभु और उनकी माता महामहिमामय ही हैं, तथापि दिक्कुमारियोंका ऐसा भक्तिक्रम है, इसलिए वे करती ही हैं। तत्पश्चात् वे भगवानके कानमें कहती हैं, 'तुम दीर्घायु होओ।' फिर पाषाणके दो गोलों को पृथ्वी में पछाड़ती हैं । तब दोनोंको वहाँसे सूतिका गृहमें लेजाकर सुला देती हैं और गीत गाने लगती हैं ।
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दिक्कुमारियाँ जिस समय उक्त क्रियायें करती हैं उसी समय स्वर्ग में शाश्वत घंटोंकी एक साथ उच्च ध्वनि होती है । उसको सुनकर सौधर्म देवलोकके इन्द्र सौधर्मेन्द्र पालक नामका एक असंभाव्य और अप्रतिम विमान रचवाकर तीर्थकरों के जन्म नगरको जाता है । वह विमान पाँच सौ योजन ऊँचा और एक लाख योजन विस्तृत होता है । उसके साथ आठ इन्द्राणियाँ और उसके आधनिके हजारों लाखों देवता भी जाते हैं । विमान जब स्वर्ग से चलता है तब ऊपर बताया गया इतना बड़ा होता है । परंतु जैसे जैसे वह भरतक्षेत्रकी ओर बढ़ता जाता है वैसे ही वैसे वह संकुचित होता जाता है । यानी इन्द्र अपनी विक्रियालब्धिके बल से उसे छोटा बनाता जाता है । जब विमान सूतिकागृहके पास पहुँचता है तब वह बहुत ही छोटा हो जाता है ।
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