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तीर्थंकर चरित-भूमिका
को प्रणाम कर हाथोंमें पंखे ले गीत गाती हुई उत्तर दिशा में खड़ी हो जाती हैं। __फिर उत्तर रुचक पर्वतपर रहनेवाली अलंबुसा, मिश्रकेशी, पुण्डरीका, वारणी, हासा, सर्वप्रभा, श्री और ही नामकी आठ दिक्कुमारियाँ आती हैं. और दोनोंको नमस्कार कर, हाथोंमें चमर ले गीत गाती हुई उत्तर दिशामें खड़ी होती हैं।
फिर ईशान, अग्नि, वायव्य और नैऋत्य विदिशाओंके अन्दर रहनेवाली चित्रा, चित्रकनका, सतेरा और सूत्रामणि नामकी दिक्कुमारियाँ आती हैं और दोनोंको नमस्कार कर, अपनी अपनी बिदिशाओं में दीपक लेकर गीत गाती हुई खड़ी होती हैं।
इन सबके बाद रुचक द्वीपसे रूपा, रूपासिका, सुरूपा और रूपकावती नामकी चार दिक्कुमारियाँ आती हैं। फिर भगवानके जन्मगृहके पास ही पूर्व, दक्षिण और उत्तरमें तीन कदली गृह बनाती हैं। प्रत्येक गृहमें विमानोंके समान सिंहासन सहित विशाल चौक रचती हैं । फिर भगवानको अपने हाथोंमें उठा, माताको चतुर दासीकी भाँति सहारा दे, दक्षिणके चौकमें ले जाती हैं । दोनोंको सिंहासनपर बिठाती हैं और लक्षपाक तैलकी मालिश करती हैं। वहाँसे उन्हें पूर्व दिशाके चौकमें लेजाकर सिंहासनपर बिठाती हैं, स्नान करबाती हैं, सुगंधित काषाय वस्त्रोंसे उनका शरीर पौंछती हैं, गोशीर्ष चंदनका विलेपन करती हैं और दोनोंको दिव्य वस्त्र तथा विद्युतप्रकाशके समान विचित्र आभूषण पहनाती हैं।
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