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सामाजिक व्यवस्था
सामाजिक जीवन की दृष्टि से जैन पुराणों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है । एक ओर इस सामग्री से मानव-सभ्यता के विकास की प्रारम्भिक स्थिति की जानकारी पारम्परिक वर्णन के रूप में सुलभ होती है, दूसरी ओर मानव-सभ्यता और सामाजिक जीवन के विकास के विभिन्न चरणों का स्पष्टतः ज्ञान उपलब्ध होता है। इसके साथ ही साथ जैन पुराणकारों ने सामाजिक जीवन के सम्बन्ध में धार्मिक मान्यताओं को भी यथास्थान अभिव्यक्त किया है। प्रस्तुत अध्याय में विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत उक्त सामग्री का विवेचन प्रस्तुत है।
[क] प्रारम्भिक स्वरूप एवं कुलकर परम्परा
१. भोगभूमि, कर्मभूमि तथा कुलकर परम्परा : जैन परम्परानुसार सृष्टि के आरम्भ में भोगभूमि थी । उसके समाप्त होने के बाद कर्मभूमि प्रारम्भ हुआ। भोगभूमि में जीवन पूर्णरूपेण भोगमय था। भोगभूमि में सभी वस्तुएँ
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