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शिक्षा और साहित्य
२४१ अथवा अधिक सही शब्दों में कह सकते हैं कि यह लिपि ब्राह्मी की उत्तरकालीन विकास थी। महा पुराणोक्त वर्णन के आधार पर यह सहज सुझाव रखा जा सकता है कि सातवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी ई० तक भारत में जिन लिपियों का विकास हुआ था, उसमें सिद्धमात्रिका का विशिष्ट स्थान था। पुरालिपिशास्त्रियों की समीक्षा के अनुसार इस अवधि में निम्नांकित लिपियाँ प्रचलित थीं-कुटिल लिपि शारदा लिपि और नागरी लिपि । आलोचित वर्णन के आधार पर यहाँ कहा जा सकता है कि इन तीनों के अतिरिक्त एक चौथी लिपि प्रचलित थी जिसे 'सिद्धमात्रिका लिपि' की संज्ञा प्रदान की गयी थी।
२. वेद : ब्राह्मण ग्रन्थों में वेद को अपौरुषेय कहा गया है। जैनी वेद विरोधी थे। इसलिए उन्होंने वेदों की कटु आलोचना की है। उन्होंने वेद को पौरुषेय तथा दोष युक्त सिद्ध करने की अनेक युक्तियाँ दी हैं।
३. वेदांग : वेद के अतिरिक्त वेदांगों का अध्ययन ब्राह्मण करते थे, परन्तु जैनी इनका विरोध करते थे ।२
४. पुराण : पुराण को 'इतिहास', 'इतिवृत्त' तथा 'ऐतिह्य' कहा गया है।' अत्यन्त प्राचीन होने के कारण इन्हें पुराण संज्ञा से सम्बोधित किया गया है। पारम्परिक पुराण तथा जैन पुराण पृथक्-पृथक् हैं। पुराणों का हम पूर्व ही अध्ययन कर चुके हैं ।
५. वाङमय : व्याकरण, छन्द तथा अलंकार शास्त्रों को वाङमय कहते हैं।
(i) व्याकरणशास्त्र : व्याकरण के विकास में धातु, गण, सुवर्ण, पद, प्रकृति, विल एवं स्वर शब्द आवश्यक हैं । इसके पारिभाषिक नामों में आख्यात, उपसर्ग एवं निपात शब्द व्यवहृत हैं। ऋषभदेव द्वारा प्रणीत व्याकरण में एक सौ से अधिक अध्याय थे ।
(ii) छन्दशास्त्र : ऋषभदेव ने एक बृहत् छन्दशास्त्र का प्रणयन किया था। उन्होंने उससे छ: प्रत्यय भी बनाया था। १. पद्म ११।११०, ११।१८४,
५. महा १६।१११ ११।२०६-२१५
६. पद्म ६११२-११३, २४।११ २. पद्म १०६-७६
७. मह। १६।११२ ३. महा १२५
८. वही २६।११३-११४ ४. वही १२१
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