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कला और स्थापत्य
२७६ हाथीदांत, शंख, सीप, अस्थि, लकड़ी एवं कागज के टुकड़े आदि उपादानों को उनके स्वभाव के अनुसार गढ़कर, खोदकर, उभारकर, हाथ या औजार से डोलिया कर ( हाथ से जहाँ जैसी आवश्यकता हो उपकरण को ऊँचा उठाकर या नीचे दबाकर आकृति उत्पन्न करना), ठप्पा करके या साँचा में ढाल कर निर्मित की हुई आकृति को मूर्ति कहते हैं ।'
४. मूर्तिकला : प्रकार एवं स्वरूप : जैन पुराणों के अध्ययन से भधो- लिखित मूर्तियों, उनके प्रकार तथा स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होता है :
(i) तीर्थंकर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों के नाम का विधान निम्नांकित ग्रन्थों में उपलब्ध होता है -बराहमिहिर की बृहत्संहिता, मानसार, आशाधर ( १२२८ ई० ) के प्रतिष्ठासारोद्धार, वसुनन्दि सैद्धान्तिक के प्रतिष्ठासार-संग्रह, तिलोयपणत्ति, प्रतिष्ठासारोद्धार और जैन पुराण । २ जैन मूर्तिशास्त्र की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि चौबीसों तीर्थंकरों के नामों के विषय में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय पूर्णतया एक मत हैं। वसुनन्दि श्रावकाचार ने 'जिन भवन' को निर्मित कर उसमें 'जिन प्रतिमा' प्रतिष्ठापित करने से अपार पुण्य की प्राप्ति का वर्णन किया है। * महा पुराण में जिन की प्रतिमा का निर्माण कर उनके पूजन का उल्लेख मिलता है ।" डॉ० उमाकान्त प्रेमानन्द शाह के मतानुसार तीर्थंकरों की मूर्तियाँ मणियों, धातुओं, पाषाणों, काष्ठ और मिट्टी से निर्मित की जाती थीं ।
पद्म पुराण के अनुसार तीर्थंकर की प्रतिमायें पंच वर्णीय नीला, हरा, लाल, काला एवं श्वेत निर्मित करनी चाहिए ।" इसी पुराण में अन्य स्थल पर जिनेन्द्र ( तीर्थंकर) की प्रतिमा के विषय में वर्णित है कि पद्ममासन मुद्रा में उच्च सिंहासन पर निर्मित उनकी प्रतिमा को मन्दिर में स्थापित करनी चाहिए । प्रतिमा के सिर की जटाओं का निर्माण मुकुट के सदृश्य होना चाहिए । प्रतिमा अग्निशिखा की भाँति गौर वर्ण तथा मुखाकृति चन्द्रमा के सदृश होना चाहिए । प्रतिमा को सुवर्ण के समान
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राय कृष्णदास - भारतीय मूर्तिकला, काशी, सं० २०३०, पृ० १३
अमलानन्द घोष - वही, पृ० ४८० - ४८३
अमलानन्द घोष - वही, पृ० ४८४
श्रमण, वर्ष १८, अंक ७, मई १६६८, पृ० १२
महा ५।१६१, ६७।४५२
अमलानन्द घोष — वही, पृ० ४८५
पद्म ६५।२७
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