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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन [ii] निर्यन्त्र : इस विधि के अन्तर्गत यन्त्र का प्रयोग किये बिना खिलौनों का निर्माण किया जाता था। "
fiii] सश्छिद्र : इस श्रेणी में वे ही खिलौने सम्मिलित थे, जिनमें छिद्र होता था।
[iv] निश्छिद्र : इस कोटि में बिना छेद के खिलौने की गणना की जाती थी।
३. परिधान कला : जिन वाह्य विधियों द्वारा शरीर की सुन्दरता में वृद्धि किया जाये उसे परिधान कला कहते हैं । पद्म पुराण में उल्लिखित है कि स्नान, केश विन्यास, शरीर को सुगन्धित एवं अच्छे-अच्छे वस्त्राभूषण धारण करना आदि क्रिया द्वारा वेशकौशल किया जाता था।' इसे ही परिधान कला की अभिधा प्रदत्त की जा सकती है।
४. संवाहन कला : इस कला के अन्तर्गत शरीर की मालिश की विधि आती थी। इसके प्रयोग से शारीरिक थकावट का निवारण और आत्मशान्ति उपलब्ध होती थी। कभी-कभी इसके द्वारा रोगों का निदान भी किया जाता था। इसके प्रमुख दो भेद हैं-कर्म संश्रया एवं श्य्योपचारिका संवाहन ।
fi] कर्म संश्रया : इसके चार उपभेद अनलिखित हैं-त्वचा, मांस, अस्थि तथा मन ।' (१) मृदु कर्म संश्रया—इसमें केवल त्वचा को सुख मिलता है। (२) मध्यम कर्म संश्रया--इस विधि द्वारा त्वचा तथा मांस दोनों को सुख उपलब्ध होता है। (३) प्रकृष्ट कर्म संश्रया-यह क्रिया त्वचा, मास तथा हड्डी के लिए सुखकर होता है। (४) मनःसुख कर्म संश्रया-इस विधि का प्रयोग त्वचा, मांस, हड्डी तथा मन के लिए सुखदायक होता है। पद्म पुराण में कर्म संश्रया के अन्य भेदों-संस्पृष्ट, गृहीत, भुक्तित, चलित, आहूत, भङ्गित, विद्ध, पीड़ित और भिन्नपीड़ित आदि-का उल्लेख है।
१. पद्म २४१८२ २. वही २४१७३ ३. वही २४१७४ ४. वही २४।७५-७६ ५. वही २४।७४-७५
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