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होना चाहिए ।"
३. श्रम विभाजन : जैनाचार्यों ने व्यक्तियों का गुणकर्मानुसार विभाजन कर उनके श्रम को भी विभाजित किया था। समाज के व्यवस्थापकों ने समाज में वर्ग संघर्ष और व्यवसाय की प्रतिस्पर्धा को कम करने के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था का प्रतिपादन किया था । लोगों के अपने वर्णानुसार स्वपैतृक व्यवसाय को करने से रोजगार के लिए संघर्ष नहीं होता था और कार्य की कुशलता में भी संवृद्धि होती थी । इसी लिए महा पुराण में वर्णित है कि प्रजा अपने - अपने योग्य कार्यों को सम्पादित करे जिससे उनकी आजीविका में वर्णों का सम्मिश्रण न हो सके । इसके पूर्व हम परिशीलन कर चुके हैं कि कुल (परिवार ) तथा वर्ण-व्यवस्था द्वारा श्रम का विभाजन हुआ था । जिससे व्यवसाय में प्रतिस्पर्धा नहीं थी और लोग पैतृक व्यवसाय को करके उस क्षेत्र में प्रवीणता ग्रहण करते थे ।
४. ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था : महा पुराण में उल्लेख आया है कि जिसमें बाड़े से परिवेष्ठित घर हों, अधिकतर शूद्र और किसान रहते हों तथा जो उद्यान एवं सरोवरों से संयुक्त हों, उसे ग्राम कहते हैं । हमारे आलोचित जैन पुराणों के रचनाकाल में समाज की अर्थ-व्यवस्था के मूलाधार ग्राम थे । गाँवों के विषय में महा पुराण में उपलब्ध विवरण से परिलक्षित होता है कि उस समय गाँव बहुत बड़े-बड़े हुआ करते थे । बड़े गाँव में कम से कम पाँच सौ और छोटे गाँव में दो सौ घर होते थे । बड़े गावों में किसान धन-धान्य से सम्पन्न होते थे । छोटे गाँवों की सीमा एक कोस एवं बड़े गाँवों की सीमा दो कोस होती थी । इन गाँवों में धान के खेत सदा सम्पन्न रहते थे और जल एवं घास भी अधिक होती थी । गाँवों की सीमा नदी, पहाड़, गुफा, श्मशान, क्षीर वृक्ष, बबूल आदि कटीले वृक्ष, वन एवं पुल आदि से निर्धारित होती थी ।" इसी पुराण में वर्णित है कि गांवों में लोहार, नाई, दर्जी, धोबी, बढ़ई, राजगीर, चर्मकार, वैद्य, पंडित, क्षत्रिय आदि व्यवसाय एवं वर्ण के सभी व्यक्ति निवास करते थे । ये विविध व्यावसायिक व्यक्ति अपने-अपने कार्यों द्वारा एक दूसरे
जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
१. स तु न्यायोऽनतिक्रान्त्या धर्मस्यार्थसमर्जनम् । रक्षणं वर्धनं चास्य पात्रे च विनियोजनम् ॥ महा २६।२६
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यथास्वं स्वोचितं कर्म प्रजा दधुरसंकरम् । ग्रामावृत्तिपरिक्षेपमात्रा: स्युरुचिता श्रयाः । शूद्रकर्षकभूयिष्ठाः सारामाः सजलाशया ॥
महा १६ १६५-१६८
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महा ४२।१३
महा १६।१८७
महा १६।१६४
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