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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
हरिवंश पुराण के अनुसार अभव्य जीव राशि का संसार सागर व्यक्ति तथा समूह दोनों की अपेक्षा अनन्त है।' उक्त पुराण में संसारी जीव के संयत, संयतासंयत और असंयत भेदानुसार तीन प्रकार उपलब्ध होते हैं । महा पुराण में ज्ञानावरणादि नामक संसारी जीव के आठ मूल कर्म का उल्लेख हुआ है और इसके एक सौ अड़तालीस (१४८) उपभेद हैं, इन्हीं से आबद्ध होने के कारण जीव का नामकरण संसारी जीव हुआ है।
(ii) मुक्त या सिद्ध जीव : जैन पुराणों में सिद्ध जीव के विषय में वर्णित है कि सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्-चारित्य रूपी उपाय द्वारा जिन्होंने स्वयं को इस प्रकार सुयोग्य निर्मित कर मुक्ति को प्राप्त कर लिया है तथा जो स्वरूप को प्राप्त कर सिद्धिक्षेत्र लोक के अग्रभाग पर तनुवातवलय में स्थित हो गये हैं, वे सिद्ध नामक संज्ञा से अभिहित होते हैं । पाँच प्रकार का ज्ञानावरण, नौ प्रकार का दर्शनावरण, साता-असाता वेदनीय, अट्ठाइस मोहनीय, चार आयु, बयालीस नाम, दो गोत्र, पाँच अन्तराय कर्म, आठ गुण (सम्यक्त्व, अनन्त-केवलज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-वीर्य, अत्यन्त-सूक्ष्मत्व, स्वाभाविक अवगाहनत्व, अव्याबाध अनन्तसुख और अगुरुलघु), असंख्यात प्रदेशी, अमूर्तिक, न्यून शरीरी, आकाश के समान, दुःखों से रहित, अपरिवर्तनीय आदि सुख स्वरूप होते हैं।
__ पद्म पुराण के अनुसार ये तीन लोक के शिखर पर विराजमान, आत्मा के स्वरूपभूत स्थिति से युक्त, मोक्ष सुख के आधार; केवलज्ञान, केवलदर्शन, अवगाहन, अमूर्तिक, सूक्ष्मत्व, असंख्यातप्रदेशी, अपरिमित, धार्मिक, सिद्ध-धारक आदि गुणों से संयुक्त होते हैं।
१. अनादिरपि चानन्त : सन्तनाद् व्यक्तितोऽपि च ।
अभव्यजीवराशीनां भवव्यसनसागरः ॥ हरिवंश ३।१०६ २. हरिवंश ३७८ ३. महा ६७।५-६ ४. सद्ग्बोधक्रियोपायसाधितोपेयसिद्धयः ।
वियुक्ता पञ्चभिर्मुक्ताः परिवर्तः सुखात्मकाः ॥ हरिवंश ३१६७-७७;
पद्म १०५।२०३, महा २४१६७, ७१।१६६-१६७ ५. स्थितांस्र लोक्यशिखरे स्वयं परमभास्वरे।
सर्वान् वन्दामहे सिद्धान सर्वसिद्धिसमावहान् ॥ पद्म ४८।२००-२०७
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