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धार्मिक व्यवस्था
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विक पुराण और धर्मशास्त्र माना गया है, जिसमें हिंसा का अभाव है ।'
जैन पुराणों में हिंसापरक वेद को पौरुषेय वर्णित है और स्थान-स्थान पर इसकी निन्दा की गयी है । वेद के आधार पर पूजा-पाठ कर आजीविका चलाने वाले ब्राह्मणों को अक्षरम्लेच्छ कहकर उनकी निन्दा की गयी है । अथर्ववेद को पाप प्रवर्तक शास्त्र कहा गया है । २ अहिंसा प्रधान जैन धर्म ने पारम्परिक वैदिक धर्म का विरोध किया है।
७. दान :भारतीय समाज में दान प्रदान करने की प्रथा प्राचीन काल से प्रचलित है। इसके अन्तर्गत मनुष्य की परोपकारी प्रवृत्ति परिलक्षित होती है । धर्मार्थ दान का भी प्रचलन यहाँ था, जिसके अन्तर्गत धार्मिक कृत्यों के लिए दान दिया जाता था। यह धार्मिक सम्प्रदायों को अधिकांशतः दिया जाता था, जिसका उपयोग वे आवश्यकतानुसार करते थे। इस प्रकार का वर्णन हमारे आलोचित जैन पुराणों में भी उपलब्ध होता है। इसका विवेचन निम्नवत् प्रस्तुत है :
[i] दान की व्युत्पत्ति : 'दा' (देने अर्थ में) धातु से 'अन' प्रत्यय होकर दान' शब्द निर्मित हुआ। दान का अर्थ है देना । दान से तात्पर्य किसी वस्तु से अपना अधिकार छोड़ दूसरे का अधिकार स्थापित करना है।
[ii] दान का लक्षण : स्वयं अपना और दूसरों के उपकार के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है।' दान के सम्बन्ध में सर्वार्थसिद्धि में वर्णित है कि दूसरे के उपकार के लिए अपनी वस्तु के अर्पण को दान कहा गया है।
[iii] दान : प्रकार एवं स्वरूप : दान के प्रकार के सम्बन्ध में जैन आगमों में दो प्रकार के विचार मिलते हैं। एक के अनुसार दान चार प्रकार का होता है और दूसरे के अनुसार दान के तीन प्रकार हैं । पहला-आहार, औषधि, शास्त्रादिक तथा स्थान-ये चार प्रकार के दान हैं। दूसरा-आहार, अभय एवं ज्ञान ये तीन
१. महा ३६।२२-२३ २. पद्म ११।१६७-२५१, हरिवंश २३।३४-३५; महा ४२।५२-१८४,
६७।१८७-४७३ ३. तत्त्वार्थसार ७।३८ ४. पद्म ३।६५-७२; सर्वार्थसिद्धि ६।१२।३३०।१४ ५. पद्म ३२।१५४-१५६; १४१७६; तुलनीय-रत्नकरण्ड श्रावकाचार ११७
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