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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
दान हैं । इसी श्रेणी में सात्त्विक, राजस एवं तामस दान को माना गया है ।
हमारे आलोचित महा पुराण में दान को चार भागों में बाँटा गया है : (१) दयादत्ति, (२) पातदत्ति, (३) समदत्ति तथा (४) अन्वयदत्ति ।'
(१) दयादति : अनुग्रह करने योग्य प्राणियों के समूह पर दयापूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धि के साथ उनके भय दूर करने को दयादत्ति नाम प्रदत्त है । (२) पात्रदत्ति : महा तपस्वी मुनियों के लिए सत्कारपूर्वक पड़गाह कर जो आहार आदि दिया जाता है उसे पात्रदत्ति संज्ञा से सम्बोधित किया गया है । "
(३) समदत्ति : क्रिया, मन्त्र एवं व्रत आदि में जो अपने समान है तथा जो संसार-समुद्र से पार कर देने वाला कोई अन्य उत्तम गृहस्थ को कन्या, हस्ति, घोड़ा, रथ, रत्न, पृथ्वी, सुवर्ण आदि देना अथवा मध्यम पात्र के लिए समान बुद्धि से श्रद्धा के साथ जो दान दिया जाता है वह समान (सम) दत्ति नाम से सम्बोधित होता है । "
( ४ ) अन्वयदत्ति : अपने वंश की प्रतिष्ठा के लिए पुत्र को समस्त कुल समर्पण करने को सकलदत्ति (अन्वयदत्ति )
पद्धति तथा धन के साथ अपना कुटुम्ब अभिधा से अभिहित किया गया है ।"
महा पुराण में दान के दूसरे वर्ग का भी सम्यक् वर्णन किया गया है, जिसमें दान के तीन प्रकार बताये गये हैं । श्रेष्ठ मुनियों ने - ( १ ) शास्त्र दान (२) अभय दान तथा (३) अन्न दान- ये तीन प्रकार के दान बताये हैं । इनमें से अन्न दान की अपेक्षा अभय दान श्रेष्ठ है और अभय दान से शास्त्र दान श्रेष्ठ है । '
(१) शास्त्र दान : सर्वज्ञ देव का कहा हुआ, पूर्वापरविरोध आदि से रहित, हिंसादि पापों को दूर करने वाला तथा प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष प्रमाणों से सम्पन्न
१. सर्वार्थसिद्धि ६ । २४ ३३८।१ २. सागर धर्मामृत ५।४७
३. महा ३८।३५
४.
वही ३८।३६
५. वही ३८।३७
६. वही ३८।३८-३६
७.
वही ३८४०
८.
शास्त्राभ्यान्नदानानि प्रोक्तानि मुनिसत्तमैः । पूर्वपूर्वबहूरात्तफलानीमानि
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धीमताम् || महा ५६।६७
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