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धार्मिक व्यवस्था
३८६ महोत्सव कर; जल, दूध, दही से अभिषेक कर; गन्ध विलेपनों, पुष्पों, रत्नों एवं नैवेद्यों से पूजा कर; धूप-दीपदान कर, उपहार चढ़ाने एवं पूजा करने की उत्तम विधि है ।' हरिवंश पुराण में उल्लेख आया है कि जो पूजा नैवेद्य से की जाती है, वह स्वर्गप्रदायिनी होती है ।२ पद्म पुराण में विवेचित है कि जो व्यक्ति जिन प्रतिमा की पूजा करता है उसे अधिक फल की प्राप्ति होती है। इसी पुराण में अन्यत्र वर्णित है कि भावपूर्वक एक प्रतिमा बनवाने में पुण्यात्मा को अतुलनीय फल की उपलब्धि होती है।
(iii) यज्ञ और यज्ञों का विरोध : जैन धर्म अहिंसा प्रधान होने के कारण उन सभी यज्ञों का विरोध करता है, जिसमें हिंसा होती है । जैन पुराणों में यज्ञ पूजा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। महा पुराण के अनुसार दान देना तथा देव एवं ऋषियों की पूजा के अर्थ में यज्ञ शब्द का प्रयोग हुआ है । महा पुराण में विवृत है कि यज्ञ दो प्रकार के होते थे-आर्य यज्ञ और अनार्य यज्ञ ।'
(१) आर्य यज्ञ-तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा कथित वेद-जिसमें जीवादि छ: द्रव्य, तीन अग्नि, ऋषि, यति, मुनि एवं अनगार रूपी द्विज वन में निवास करते हैंद्वारा आत्मयज्ञ कर मोक्ष प्राप्त करते हैं। दूसरे आर्य यज्ञ में तीर्थकर गणधर एवं अन्य केवलियों का पूजन, दान, ऋषि प्रणीत वेदमंत्र का उच्चारण, अक्षत-गन्ध-माला आदि से आहुति होती है । ऋषियों ने मुनि और गृहस्थ आश्रमों के भेद से इसे दो प्रकार का बताया है : मुनि यज्ञ-मोक्ष का साक्षात् कारण मुनि आश्रम है और गृहस्थ यज्ञपरम्परा से मोक्ष का कारण । पद्म पुराण में आर्य यज्ञ को ही धर्म यज्ञ की अभिधा दी गयी है।'
(२) अनार्य यज्ञ : जिस यज्ञ में हिंसा होती है, वह अनार्य यज्ञ का बोधक है। जैन पुराणों में हिंसा यज्ञ का उल्लेख मिलता है। यज्ञ में बहुत से प्राणियों की
१. पद्म १०८६-६०, ३२११५३-१७१, ४५२१०१,६६।५, ६५॥३२-३३ २. नैवेद्यादिविधानेन यागः स्वर्गफलप्रदः । हरिवंश १७११२६ ३. पद्म ३२११७८-१८२ ४. वही १४।२०६-२१०, ३२।१७४ ५. वर्तते यज्ञशब्दश्च दानदेवर्षिपूजयोः । महा ६७।१६२ ६. महा ६७२००-२१० ७. पद्म ११।२४१-२४४
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