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धार्मिक व्यवस्था
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६. पूजा : भारतीय समाज में प्राचीन काल से मनुष्य के दैनिक जीवन में पूजा का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । मनुष्य की यह सुदृढ़ आस्था है कि इस कृत्य को सम्पन्न करने से वह सुखी-समृद्धशाली होगा और विघ्न-बाधाओं से मुक्त रहेगा। इसके साथ ही उसका परलोक भी उत्तम होगा। इस प्रकार आलोच्य पुराणों में यह धर्म- राग प्रचुर होने के कारण जिन पूजा को ही महत्त्व प्रदान किया है । इस सन्दर्भ में निम्नवत् विवरण प्रस्तुत हैं :
[i] पूजा : लक्षण एवं नाम : राग प्रचुर होने के कारण गृहस्थों के लिए प्रधान धर्म जिन पूजा है । यद्यपि इसमें पंच परमेष्ठि की प्रतिमाओं का आश्रय होता है, परन्तु अपने भाव ही प्रधान हैं, जिनके कारण पूजक को असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होती रहती है ।
हमारे आलोच्य जैन पुराणों में पूजा के विभिन्न नाम उपलब्ध होते हैं । महा पुराण में कथित है कि याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख तथा महये सब पूजा के पर्यायवाची शब्द हैं ।'
[ii] पूजा : प्रकार एवं विधि-विधान : महा पुराण में पूजा के चार प्रकार वर्णित हैं- (१) सदार्चन ( नित्यमह), (२) चतुर्मुख ( सर्वतोभद्र ), (३) कल्पद्रुम तथा ( ४ ) अष्टाकि । २
(१) सदार्चन ( नित्यमह ) : अपने घर से गन्ध, पुष्प, अक्षत इत्यादि ले जाकर जिनालय (मन्दिर) में जिनेन्द्र देव की पूजा करने को सदार्चन नाम प्रदत्त है अथवा भक्तिपूर्वक अर्हन्तदेव की प्रतिमा तथा मन्दिर का निर्माण करना और दानपत्र लिखकर ग्राम खेत आदि का दान देना भी सदार्थन का बोधक है । इसी के अन्तर्गत यथाशक्ति मुनियों की पूजा एवं दान की व्यवस्था भी की गयी है । '
(२) चतुर्मुख ( सर्वतोभद्र ) : राजाओं द्वारा जो महायज्ञ किया जाता था, उसको चतुर्मुख ( सर्वतोभद्र ) की अभिधा से अभिहित किया गया है ।
१.
२.
यागो यज्ञः क्रतुः पूजा सपर्येज्याध्वरो मखः ।
मह इत्यापि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः । महा ६७।१६३
प्रोक्ता पूजार्हता मिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम् । चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च ॥ महा ३८।२६
३. महा ३८।२७ - २६
४.
वही ३८/३०
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