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धार्मिक व्यवस्था .
३४३ हरिवंश पुराण के अनुसार चौदह मार्गिणा स्थान, चौदह गुण स्थान और चौदह जीव समास द्वारा जीव द्रव्य का ज्ञान होता है।' जैन पुराणों के अनुसार सांसारिक जीव के भव्याभव्य, सूक्ष्म, स्थूल, पर्याप्तक, अपर्याप्तक, संज्ञी-असंज्ञी आदि भेद उपलब्ध होते हैं, परन्तु सिद्ध जीव इन भेदों से रहित हैं।२ प्रमाण, नय, निक्षेप, सत्, संख्या, निर्देश और चौदह मार्गणाओं आदि से संसारी जीव का निर्धारण करना चाहिए।' संसारी जीव केवल दुःख का ही अनुभव करते हैं । पञ्चेन्द्रियों के विषयों से जो सुख होता है उन्हें संसारी जीव भ्रमवश सुख समझता है। महा पुराण में विवृत है कि जो आठ कर्मों से बद्ध हैं उन्हें संसारी जीव का नाम प्रदत्त किया गया है। इसी पुराण में उल्लिखित है कि बसकाय, वनस्पतिकाय, पृथ्वीकाय, जलकाय, वायुकाय और अग्निकाय-इन छः से जीव का निर्माण होता है। संसारी जीव सुख उपलब्धि की इच्छा से इन्द्रियजनित ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख और सुन्दरता को शरीर रूपी घर में ही अनुभव करने का प्रयत्न करता है ।
जैन पुराणों में विवेचित है कि अभव्य जीव मुक्तिप्रदायक शक्ति से रहित है और भव्य जीव को मुक्ति प्राप्त होती है। पद्म पुराण में प्राणियों की दशाएँउत्तम, मध्यम एवं जघन्य-तीन प्रकार की वर्णित हैं। उनमें से अभव्य जीव की दशा जघन्य है, भव्य की मध्यम है और सिद्धों की उत्तम है।
१. हरिवंश २।१०७ २. पद्म १०५।१४४-१४८; हरिवंश ३।१०१-१०६; महा २४१८७-६० ३. प्रमाणनयनिक्षेपसत्संख्यादिकिमादिभिः ।
संसारी प्रतिपत्तव्यो मुक्तोऽपिनिजसद्गुणैः ॥ हरिवंश ५८।३८; महा २४।६८ तत्र संसारिजीवानां केवलं दुःखवेदिनाम् ।
सुखं संज्ञावमूढानां तत्रैव विषयोद्भवे ॥ पद्म २।१६१ ५. बद्धं संसारिणं प्राहुस्तैर्मुक्तो मुक्त इष्यते। महा ६७।५
नसान् हरितकाथांश्च पृथिव्याप्पवनानलान् । जीवकायानपापेभ्येस्ते स्म रक्षन्ति यत्नतः ॥ महा ३४।१६४ संसारीन्द्रियविज्ञानदृग्वीर्यसुखचारुताः ।
तन्वावासौ च निर्वेष्टु यतते सुखलिप्सयाः ॥ महा ४२॥५४ ८. सिद्धिशक्तिविनिर्मुक्ता अभव्याः परिकीर्तिताः ॥
भविष्यत्सिद्धयो जीवा भव्यश दमुपाश्रिताः ॥ पद्म १०५।२०३
सदृष्टिज्ञानचारित्र..... अभव्यास्तद्विलक्षणाः । हरिवंश ३।१०१ ६. स्थितयस्तिस्र ...... जिनेदिशा ।
पद्म ३१।१०-११
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