Book Title: Jain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Author(s): Deviprasad Mishra
Publisher: Hindusthani Academy Ilahabad

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Page 414
________________ ३८० जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन [iv] ध्यान की क्रिया : हरिवंश पुराण में उल्लिखित है कि ध्यानकर्ता पुरुष गम्भीर, निश्चल शरीर और सुखद पर्यङ्कासन से युक्त होता है। उसके नेत्र न तो खुले होते हैं और न बन्द ही रहते हैं । नीचे के दांतों के अग्रभाग पर उसके ऊपर के दांत स्थित रहते हैं। वह इन्द्रियों के समस्त व्यापार से निवृत्त होता है तथा श्रुत का पारगामी होता है । वह धीरे-धीरे श्वासोच्छ्वास का संचार करता है। वह मनोवृत्ति को मस्तक पर, हृदय में या ललाट में स्थिर कर आत्मा को एकाग्र करता हुआ ध्यान करता है। इसी प्रकार ध्यान की क्रियाओं का सुन्दर वर्णन महा पुराण में उपलब्ध है। [v] ध्यान :प्रकार एवं स्वरूप : वह (ध्याता, ध्यान, ध्येय तथा ध्यान फल रूप) चार अंग वाला अप्रशस्त तथा प्रशस्त के भेद से दो प्रकार का होता है।' ध्यान चार प्रकार का कथित है-आर्त, रौद्र, धर्म्य तथा शुक्ल ।' आर्त्तध्यान तथा रौद्रध्यान अप्रशस्त हैं और धर्म्य ध्यान तथा शुक्ल ध्यान प्रशस्त हैं। महा पुराण के कथनानुसार इन चारों ध्यानों में से प्रथम दो (आर्त तथा रौद्र) ध्यान त्याज्य हैं क्योंकि वे खोटे ध्यान हैं तथा संसार को बढ़ाने वाले हैं और आगे के दो (धर्म तथा शुक्ल) ध्यान मुनियों को धारण करने योग्य हैं ।' (१) आर्तध्यान : पीड़ा को आति कहते हैं। आति के समय जो ध्यान होता है, उसे आर्तध्यान संज्ञा प्रदत्त है । यह आर्तध्यान अत्यन्त कृष्ण, नील तथा कपोत लेश्या के बल से उत्पन्न होता है। बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से इसके दो प्रकार हैं। बाह्य. आर्तध्यान अनुमान से और आभ्यन्तर स्वसंवेदन से जाना जाता है। (i) बाह्य आर्तध्यान : अमनोज्ञ दुःख के बाह्य साधन मनुष्य आदि चेतन १. हरिवंश ५६।३२-३५ २. महा २११५७-८४ ३. वही २१।२७; हरिवंश ५६।२; तुलनीय-चारित्र सार १६७।२; ज्ञानार्णव २५।१७ ४. महा २१।१८; हरिवंश ५६।२; तुलनीय-तत्त्वार्थसूत्र ६२८ ५. वही २१।२७; तुलनीय-मूलाचार ३६४ ६. वही २१२६ ७. हरिवंश ५६।४; महा २१।३१-३२, २१।३८ ८. वही ५६।५; वही २१।३२-३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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