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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन प्रकार के परिग्रह की रक्षा का निरन्तर अभिप्राय रखना तथा मैं इसका साथी हूँ, और यह मेरा स्व है इस प्रकार बार-बार चिन्तवन करना परिग्रह संरक्षणानन्द रौद्र ध्यान है ।
___ बाह्य (क्रूर व्यवहार, अशिष्ट वचन कहना) और आभ्यन्तर (हिंसा आदि कार्यों में संरम्भ, समारम्भ और आरम्भरूपी प्रवृत्ति) के भेद से रौद्रध्यान दो प्रकार का होता है। अन्य में पाया जाने वाला रौद्रध्यान अनुमान से और अपने में पाया जाने वाला रौद्रध्यान स्वयं अनुभव से ज्ञात होता है ।।
यह रौद्रध्यान तीन कृष्ण, नील तथा कापोत लेश्या के बल से होता है, प्रमाण से सम्बन्धित तथा नीचे के पाँच गुण स्थानों में होता है । इसका काल अन्तर्मुहुर्त है । यह परोक्ष ज्ञान से होता है अतः क्षयोपशमभाव रूप है। भावलेश्या तथा कषाय के अधीन होने से औदार्यकभाव रूप है। इस ध्यान का उत्तर फल नरकगति है।'
(३) धर्म्यध्यान : बाह्य और आध्यात्मिक भावों के यथार्थ भाव को धर्म कथित है। इस धर्म के सहित को धर्म्यध्यान नाम प्रदत्त है। महा पुराण में उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य सहित वस्तु के यथार्थ स्वरूप को धर्म संज्ञा प्रदत्त है ।' धर्म्यध्यान के दो प्रकार होते हैं :
(i) बाह्य धर्म्यध्यान : शास्त्र के अर्थ की खोज, शीलव्रत का पालन, गुणों के समूह में अनुराग, अंगड़ाई, छींक, डकार एवं श्वासोच्छ्वास में मन्दता, शरीर की निश्चलता और आत्मा को व्रतों से युक्त करना है।"
(ii) आभ्यन्तर धर्म्यध्यान : मन, वचन तथा योगों की प्रवृत्ति ही प्रायः संसार का कारण है। इन प्रवृत्तियों के अपाय अर्थात् त्याग को आभ्यन्तर धर्म्यध्यान की अभिधा प्रदत्त है। इसके दस भेद हैं-अपाय विचय, उपाय विचय, जीव विचय, अजीव विचय, विपाक विचय, वैराग्य विचय, भव विचय, संस्थान विचय, आज्ञा विचय और हेतु विचय । १. हरिवंश ५६।२२-२५; महा २११४३, ४६५१ २. वही ५६।२१-२२; वही २११५२-५३ ३. वही ५६।२६-२८; वही २१।४३-४६ ४. वही ५६।३५ ५. महा २१।१३३ ६. हरिवंश ५६१३६ ७. वही ५६।३६-३७; महा २१।१६१ ८. वही ५६।३८-५०, वही २१११५६-१६०
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