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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
(१०) प्रत्याहार : मन की प्रवृत्ति का संकोच कर लेने पर जो मानसिक संतोष प्राप्त होता है उसे प्रत्याहार की अभिधा प्रदत्त है।'
३. ध्यान : भारतीय समाज एवं सम्प्रदायों में मोक्ष उपलब्धि के साधनों में ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इसी प्रकार जैन ग्रन्थों में इसका विशद विवरण उपलब्ध होता है । हम अग्रलिखित पंक्तियों में इसका विवेचन प्रस्तुत कर रहे हैं :
fi] ध्यान की व्युत्पत्ति: ध्या धातु में अन् प्रत्यय लगाने से ध्यान शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। इसका अर्थ है किसी विषय में मन लगाना । एकाग्रता का नाम ध्यान है। व्यक्ति जिस समय जिस भाव का चिन्तन करता है, उस समय वह उस भाव के साथ तन्मय होता है। इसलिए जिस किसी भी देवता या मंत्र या अर्हन्त आदि को ध्याता है, उस समय वह अपने को वह ही प्रतीत होता है। योग, ध्यान, समाधि, धीरोध (बुद्धि की चंचलता को रोकना), स्वान्तः निग्रह (मन को वश में करना) अन्तः संलीनता (अत्मा के स्वरूप में लीन होना) आदि ध्यान के पर्यायवाची शब्द हैं।
[i] ध्यान के अंग : ध्यान के मुख्यतया तीन अंग हैं-ध्याता, ध्यान तथा ध्येय । इनका विवरण अधोलिखित है :
(१) ध्याता : धर्म व शुक्लध्यानों को ध्याने वाले योगी को ध्याता संज्ञा प्रदत्त है । यदि ध्यानकर्ता मुनि चौदह या दस या नौ पूर्व का ज्ञाता हो तो ध्यान सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त कहलाता है। इसके अतिरिक्त अल्प श्रुतज्ञानी, अतिशय बुद्धिमान् और श्रेणी के पूर्व का धर्म-ध्यान धारक उत्कृष्ट मुनि भी उत्तम ध्याता संज्ञा से सम्बोधित होता है ।' आर्त और रौद्र ध्यानों से दूर, अशुभ लेश्याओं से रहित, लेश्याओं की विशुद्धता से अवलम्बित, अप्रमत्त अवस्था की भावना भरने वाला, बुद्धि के पार को प्राप्त, योगी, बुद्धिबलयुक्त, सूत्रार्थ अवलम्बी, धीरवीर, समस्त परीषहों का सहनशील, संसार से भयभीत, वैराग्य भावनाएँ भरने वाला, वैराग्य के कारण भोगोपभोग की सामग्री को अतृप्तिकर देखता हुआ सम्यग्ज्ञान की भावना से मिथ्याज्ञान रूपी प्रगाढ़ अन्धकार को नष्ट करने वाला तथा विशुद्ध सम्यग्दर्शन द्वारा मिथ्या शल्य को दूर भगाने वाला मुनि ध्याता है।
१. प्रत्याहारस्तु तस्योपसंहृतो चित्तनिवतिः । महा २१।२३० २. योगो ध्यानं समाधिश्च धीरोधःस्वान्तनिग्रहः ।
अन्तः संलीनता चेति तत्पर्यायाः स्मृता बुधाः ॥ महा २१११२ ३. महा २१११०१-१०२ ४. वही २११८६-८६
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