________________
जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन २. योग : प्राचीन काल से योग का विशेष स्थान रहा है । आलोचित जैन पुराणों में योग के विषय में अग्रलिखित सामग्री उपलब्ध होती है :
[i] योग की व्यत्पत्ति : 'युज' धातु और 'घ' प्रत्यय से योग शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। 'युज धातु के दो अर्थ हैं-संयोजित करना अथवा जोड़ना और समाधि अथवा मन: स्थिरता ।
[ii] योग के लक्षण : कर्मों के संयोग के कारण मूल जीवों के प्रदेशों का प्रतिस्पन्दन योग कहलाता है अथवा मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के प्रति जीव का उपयोग या प्रयत्न विशेष योग का बोधक है, जो एक होता हुआ भी मन, वचन आदि के निमित्त की अपेक्षा तीन या पन्द्रह प्रकार का होता है। जैन पुराणों में काय, वचन तथा मन की क्रिया को योग कहते हैं । पतञ्जलि ने चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा है । बौद्ध-विचारक आचार्य हरिभद्र ने योग का अर्थ समाधि किया है।'
जैनागम में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को 'आस्रव' कहा गया है। आस्रव के निरोध करने का नाम 'संवर' है। इसलिए पतञ्जलि के योगसूत्र में जिसे 'चित्तवृत्ति' कथित है, जैन परम्परा में उसे 'आस्रव' नाम प्रदत्त है।
[iii] योग : प्रकार एवं स्वरूप : महा पुराण में छ: प्रकार के योगों का निरूपण करते हुए योग, समाधान, प्राणायाम, धारणा, आध्यान (चिन्तवन), ध्येय, स्मृति, ध्यान का फल, ध्यान का बीज तथा प्रत्याहार की समीक्षा की गयी है।
(१) योग : मन, वचन तथा काय की क्रिया को योग संज्ञा प्रदत्त है। इसके शुभ तथा अशुभ दो भेद हैं।'
m
१. कामवाड्मनसां कर्म योगो योगविदां मतः । महा २१।२२५; हरिवंश ५८।५७ २. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । पातञ्जल योगसूत्र १२
मोक्खेण जोयणाओ जोगो। योगविंशिका, गाथा १ पंच आसवदारा पण्णता, तं जहा-मिच्छत्तं अविरई, पमायो, कसाया, जोगा। समवायांग, समवाय ५ आस्रव-निरोधः संवरः । तत्त्वार्थसूत्र ६१ षड्भेद योगवादी यः सोऽनुयोज्यः समाहितः । योगः कः किं समाधानं प्राणायामश्च कीदृशः ।। का धारणा किमाध्यानं किं ध्येयं कीदृशी स्मृतिः ।
किं फलं कानि बीजानि प्रत्याहारोऽस्य कीदृशः ।। महा २१।२२३-२२४ ७. कायवाड्मनसां कर्म योगो योगविदां मतः।
स शुभाशुभभेदेन भिन्नो द्वैविध्यमश्नुते ।। महा २१।२२५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org