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धार्मिक व्यवस्था
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के चट्टानों की तप्त शिलाओं पर दोनों पैर रखकर दोनों भुजाएँ लटका कर खड़े होते थे । अत्यधिक ग्रीष्म ऋतु में जब पृथ्वी तपी हुई धूलि से व्याप्त हो, वन दावाग्नि से जल रहे हों, तालाब सूख गये हों, दिशाएँ धुएँ के अन्धकार से व्याप्त हों ऐसे समय में मुनि आतापन योग करते थे । वे घनघोर वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे रात्रि व्यतीत करते थे । कठोर शीत ऋतु में खुले आकाश में शयन करते थे। शीत ऋतु में बर्फ के ऊपर निर्वस्त्र शयन करते थे। पद्मपुराण में उल्लेख आया है कि वे चारित्र, धर्म, गुप्ति, अनुप्रेक्षा, समिति और परिषह द्वारा महासंवर को प्राप्त होते हैं । नवीन कर्मों का अर्जन बन्द कर और संचित कर्मों का तप द्वारा नाश करके सबर एवं निर्जरा द्वारा केवल ज्ञान को प्राप्त होते हैं । अन्त में आठ कर्मों का नाश करके अनन्त सुख को प्राप्त होते हैं । जैन पुराणों में मुनियों के सामान्य धर्म का निम्न विवेचन हुआ है :
(१) पाँच महावत : अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह त्याग-ये पाँच महाव्रत कहलाते हैं :
अहिंसा महाव्रत : मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, ईर्यासमिति, कायनियन्त्रण एवं विष्वाणसमिति (आलोकितपान भोजन)-ये पाँच अहिंसावत हैं।'
सत्य महाव्रत : क्रोध, लोभ, भय एवं हास्य का परित्याग करना तथा शास्त्रानुसार वचन कहना-सत्य महाव्रत का बोधक है।
अचौर्य महाव्रत : परिमित आहार लेना, तपश्चरण के योग्य आहार लेना, श्रावक के प्रार्थना पर आहार लेना, योग्यविधि के विरुद्ध आहार न लेना और प्राप्त हुए भोजन में संतोष करना अर्थात् बिना दिये हुए द्रव्य को ग्रहण करना अचौर्य महाव्रत संज्ञा से सम्बोधित करते हैं।
ब्रह्मचर्य महावत : स्त्रियों की कथा का त्याग, उनके सुन्दर अंगोपांगों के देखने का त्याग, उनके साथ रहने का त्याग, पहले भोगे (उपभुक्त) भोगों के स्मरण का त्याग और गरिष्ठ रस का त्याग-ब्रह्मचर्य महाव्रत नाम प्रदत्त है।'
१. महा ३४।१५१-१६० २. पद्म ६२१६-२२१ ३. हरिवंश २०११६१; महा २१११६-११७; पद्म ४।४८ ४. वही २०११६२; वही २।११५; वही ४।४८ ५. वही २०।१६३; वही २।११६; वही ४।४८ ६. वही २०११६४; वही २२०; वही ४।४८
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