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धार्मिक व्यवस्था
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(४) मूलगुण : पाँच महाव्रत, पांच समितियां, पाँच इन्द्रिय दमन, छ: आवश्यक कार्य (सामायिक, वन्दन, चतुर्विशतिस्तव, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग) और सात व्रत (केश लुञ्चन, स्नान न करना, एक बार भोजन करना, खड़े-खड़े भोजन करना, वस्त्र धारण न करना, पृथ्वी पर शयन करना एवं दन्तमल दूर करने का त्याग करना)-इन अट्ठाइस मूल गुणों का पालन करना चाहिए।'
(५) उत्तर गुण : मूल गुण के अतिरिक्त चौरासी लाख उत्तरगुणों का भी पालन करना चाहिए ।
(६) परीषह : संवर के मार्ग से च्युत् न होने और कर्मों के क्षय हेतु जो सहन योग्य हों, वे परीषह हैं।' क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंश, मशक, नाग्न्य, रीत, स्त्री, चर्या, निषधा, शय्या, क्षमा, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृण, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और दर्शन-ये बाईस परीषह होते हैं।
(७) तप : उपवास, अवमोदर्य, वृत्ति-परिसंख्यान, रसपरित्याग, कायक्लेशएवं विविक्तशय्यासन-ये छ: बाह्य-तप और प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग तथा ध्यान-ये छः अन्तरंग तप होते हैं। ये सब धर्म कहलाते हैं। बाह्य तपों में कायक्लेश सर्वाधिक प्रधान है। हरिवंश पुराण में क्षमादि दस धर्म का उल्लेख उपलब्ध हैं।
(८) अनुप्रेक्षा : शरीरादि अनित्य है, कोई किसी का शरण नहीं है, शरीर अशुचि है, शरीर रूपी पिंजड़े से आत्मा पृथक् है, यह अकेला ही दुःख-सुख भोगता है, संसार के स्वरूप का चिन्तवन करना, लोक की विचित्रता का विचार करना, आस्रव के दुर्गणों का ध्यान करना, संवर की महिमा का चिन्तन करना, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा का उपाय सोचना, बोधि (रत्नत्रय) की दुर्लभता का विचार करना १. महा १८७०-७२; हरिवंश २।१२७-१२६ पम ३७।१६५ २. वही ३६।१३५; २१गुणx ४ अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार-१०० जीव
समासx१०शील वीराधनाx१० आलोचना के दोष १० धर्म-८४,००,०००
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ० ४०५ ३. मार्गाच्यवननिर्जराथं परिसोढव्याः परिषहाः। तत्त्वार्थसूत्र ६८
हरिवंश ६३१६१-११४; महा २०११६६; पद्म ६२१६ ५. पद्म १४।११४-११७; हरिवंश ६४।२१-५७; महा १८१६७-६६ ६. महा २०११८३ ७. अनुप्रेक्षाश्च धर्मश्च क्षमादिदशलक्षणः । हरिवंश २।१३०
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