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धार्मिक व्यवस्था
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दूसरी दृष्टि से वस्तु का चयन दूसरी प्रकार होता है । इस कथन को अभिव्यक्त करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है । 'स्यात्' शब्द के प्रयोग करने के कारण ही हमारा कथन 'स्याद्वाद' कहलाता है । अतः अनेकान्तात्मक अर्थ का कथन 'स्याद्वाद' है ।
'स्याद्वाद' को 'अनेकान्तवाद' भी कहा गया है । क्योंकि 'स्याद्वाद' से जिसका कथन होता है वह अनेकान्तात्मक है । 'स्यात्' 'अनेकान्त' का द्योतक है । इसलिए 'स्याद्वाद' और 'अनेकान्तवाद' दोनों एक ही हैं ।
महा पुराण में वर्णित है कि स्याद्वाद के कारण बाधा नहीं होती । भूत, भविष्य तथा वर्तमान तीनों कालों में विद्यमान स्कन्धों में परस्पर कारण-कार्य भाव रहता है । इनमें कार्यकारण भाव रहने से यह एक अखण्ड सन्तान मानी जाती है । "
७. स्याद्वाद और सप्तभंगी : आलोचित महा पुराण के कथनानुसार कोई वस्तु न नित्य है, न क्षणिक है, न ज्ञान मात्र है और न अदृश्य होने से शून्य है । वस्तुतः प्रत्येक वस्तु तत्त्व और अतत्त्व अर्थात् अस्ति और नास्ति रूप है । ર जब कोई वस्तु का पक्ष सत् होता है तो उसका विरोधी रूप असत् भी सामने आता है । तृतीय रूप सदसत् का होता है अनुभय अर्थात् न सत् न असत् । चतुर्थ पक्ष अव्यक्तव्य है । पाँचवा सत् अव्यक्तव्य, छठा असत् अव्यक्तव्य और सातवाँ सतसत् अव्यक्तव्य । जैन पुराणों में इसी सप्तभंगी - अस्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति, अव्यक्तव्य ( अनुभव्य ), अस्ति अव्यक्तव्य, नास्ति - अव्यक्तव्य और अस्ति नास्ति - अव्यक्तव्य - का उल्लेख उपलब्ध होता है । इस प्रकार हमें ज्ञात होता है कि स्याद्वाद का कथन सात प्रकार से होता है । दोनों में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है ।
८. नयवाद : श्रुत के दो उपयोग हैं-सकलादेश और विकलादेश | सकलादेश को प्रमाण या स्याद्वाद कहते हैं और विकलादेश को नय ।
[i] नय का लक्षण : पद्म पुराण में उल्लिखित है कि किसी एक धर्म को सिद्ध करना नय है । * हरिवंश पुराण में उल्लेख आया है कि वस्तु के अनेक स्वरूप
१.
महा ६३।५६ - ६४
२ . वही ३३।१३६, ५८।५६ पद्म १०५।१४३; हरिवंश ४६।४८ ३. स्याद्वाद : सकलादेशो नयो विकलसंकथा | लघीयस्त्रय ३ | ६|६२;
उद्धृत - मोहनलाल मेहता - जैन धर्म-दर्शन, पृ० ३६५
४. पद्म १०५।१४३
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