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धार्मिक व्यवस्था
३५६ कर्मों के अनुसार कोई आर्य होता है तो कोई म्लेच्छ । कोई धनाढ्य होता है
और कोई अत्यन्त दरिद्र । कर्मों से घिरे अनेक प्राणी सैकड़ों कामना करते हुए दूसरे के घरों में अत्यन्त क्लेशपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं। कोई धनाढ्य होकर भी कुरूप होता है तो कोई रूपवान होकर भी दरिद्र होता है। कोई दीर्घायु होता है तो कोई अल्पायु । कोई सर्वप्रिय तथा यशस्वी होता है और कोई अप्रिय एवं अपयशी होता है । कोई आज्ञा देता है और कोई उस आज्ञा का पालन करता है। कोई रण में प्रवेश करता है तो कोई पानी में गोता लगाता है। कोई विदेश जाता है तो कोई खेती करता है। पूर्व कृत कर्म के उदय होने पर पति, पुत्र, पिता, नारायण या अन्य परिवार के लोग कुछ नहीं कर पाते । संसार में कौन किसके लिए सुखकारी होता है ? या कौन किसके लिए दुःखदायी है ? और कौन किसका मित्र है ? अथवा कौन किसका शत्रु है ? यथार्थ में स्वकृत कर्म ही सुख या दुःख का प्रदायक होता है।' इसी लिए पद्म पुराण में निर्देशित है कि स्व-उपार्जित कर्मों का भोग करो। इसी पुराण में उल्लिखित है कि इस लोक के कृत कर्मों का उपभोग परलोक में जीव करता है और पूर्वभव में किये हुए पुण्यकर्मों का फल इस भव में प्राप्त होता है।
1 [v] कर्म और पुनर्जन्म : कर्म और पुनर्जन्म का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। कर्म की सत्ता अंगीकार करने पर पुनर्जन्म अथवा परलोक की सत्ता भी स्वीकृत करनी पड़ती है। जिन कर्मों की फल-प्राप्ति इस जन्म में नहीं होती, उन कर्मों के भोग के लिए पुनर्जन्म मानना अनिवार्य है । पुनर्जन्म एवं पूर्वभव अस्वीकार करने पर कृत कर्म का निर्हेतुक विनाश-कृतप्रणाश एवं अकृत कर्म का भोग-अकृतकर्मभोग मानना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में कर्म-व्यवस्था दूषित हो जायेगी। इन्हीं दोषों से विमुक्ति के लिए कर्मवादियों को पुनर्जन्म की सत्ता स्वीकृत करनी पड़ती है।
हरिवंश पुराण में वर्णित है कि समस्त संसारी जीवों का समावेश चार
१. हरिवंश ४६।१७; पद्म १४१४१-४५ २. महा ६१।३३७; पद्म ६७१५७ ३. सुखं वा यदि वा दुःखं दत्ते कः कस्य संसृतौ ।
मिन्नं वा यदि वामित्रः स्वकृतं कर्म तत्त्वतः ॥ हरिवंश ६२१५१ ४. पद्म १७५८७ ५. इह यत् क्रियते कर्म तत्परत्रोपभुज्यते ।
पुराकृतानां पुण्यानां इह सम्पद्यते फलम् ॥ पद्म ४०।३७ ६. मोहन लाल मेहता---जैन धर्म-दर्शन, पृ० ४६१
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