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धार्मिक व्यवस्था
(६) समभिरूढ़ नय : जो शब्दभेद होने पर अर्थभेद स्वीकार करता है वह समभिरूढ़ नय है।
(७) एवंभूत नय : जो पदार्थ जिस क्षण में जैसी क्रिया करता है उसी क्षण में उसको उस रूप में कहना अन्य क्षण में नहीं-यह एवंभूत नय है । यह नय पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को कहता है।
हरिवंश पुराण में आगे उल्लेख आया है कि द्रव्य की अनन्त शक्तियाँ हैं। उक्त सातों नय प्रत्येक शक्ति के भेदों को स्वीकार करते हुए उत्तरोत्तर सूक्ष्म पदार्थ. को ग्रहण करते हैं। नैगम, संग्रह, व्यवहार तथा ऋजु-ये चार अर्थनय हैं और शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत-ये तीन शब्द नय हैं। इनके सैकड़ों उपभेद हैं। क्योंकि जितने वाक्य के मार्ग भेद हैं उतने नय हैं । इसलिए नयों की संख्या निश्चित है।'
१. हरिवंश ५८।५०-५२
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