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धार्मिक व्यवस्था जैन आगमों में श्रमणों (मुनियों) के पांच प्रकार कथित हैं-णिग्गंथ (निर्ग्रन्थ), सक्क (शाक्य), तावस (तापस), गेरुअ (पारिवाजक) और आजीविय (आजीविक)।
निर्ग्रन्थ मुनियों के पांच भेद हैं-पुलाक, वकुश, कुशील, निम्रन्थ और स्नातक ।२
(१) पुलाक मुनि : जो उत्तर गुणों की भावना से रहित हों तथा मूल व्रत में भी जो कहीं कभी पूर्णता को प्राप्त हों, वे धान्य के छिलके के समान पुलाक मुनि कहलाते थे।
(२) वकुश मुनि : जो मूल व्रतों का तो अखण्ड रूप से पालन करते थे, परन्तु शरीर और उपकरणों को साफ-सुथरा रखने में लीन रहते थे, जिनका शरीर नियत था-जो अनेक मुनियों के परिवार से युक्त हों और मलिनसातिचार चारित्र के धारक थे, उन्हें वकुश मुनि संज्ञा प्रदत्त किया गया था। इनके दो उपभेद हैं-(१) शरीर वकुश-शरीर का संस्कार करने वाले और (२) उपकरण वकुश-उपकरण को चाहने वाले ।
(३) कुशील मुनि : प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील नामक कुशील के दो भेद होते हैं। जो मूलगुण और उत्तरगुण दोनों की पूर्णता से संयुक्त थे । परन्तु कदाचित् उत्तरगुणों की विराधना कर बैठते थे एवं संघ आदि परिग्रह से युक्त होते थे वे प्रतिसेवना कुशील थे । जिनके अन्य कषाय शान्त हो गये थे, केवल संज्वलन का उदय रह गया है, वे कषायकुशील कहलाते थे ।
(४) निर्ग्रन्थ मुनि : 'निर्' तथा 'ग्रन्थ' दो शब्दों से यह तत्पुरुष समास होकर निर्मित हुआ है। जिनकी ग्रन्थियाँ निकल गयी हैं उन्हें निर्ग्रन्थ नाम प्रदत्त है, अथवा जिसने ग्रन्थ को पढ़कर भुला दिया है (निरर्थक कर दिया है)। सब वस्तुओं १. निशीथभाष्य १३।४४२०; बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति ।१।१४६०; आचारांगचूर्णी
२०१, पृ० ३३० २. पुलाको वकुशश्चैव कुशीलो गुणशीलवान् ।
निर्ग्रन्थः स्नातकश्चेति निर्ग्रन्थाः पञ्चधा मताः ॥ हरिवंश ६४१५८ ३. हरिवंश ६४।५६ ४. वही ६४।६० ५. सर्वार्थसिद्धि ६४७४६।१२ . ६. हरिवंश ६४१६१-६२
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