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धार्मिक व्यवस्था
३६५ [ii] मुनियों के प्रकार : जैन आगमों में उत्तम चरित्न वाले मुनियों के श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदंत, दान्त, यति आदि नामार्थ व्यवहृत हुए हैं। 'मन्' धातु से 'इ' प्रत्यय होकर अकार के उकार आदेश होने से मुनि शब्द निर्मित हुआ है । मुनि का अर्थ मननशील व्यक्ति होता है । हरिवंश पुराण में मुनियों के दस प्रकार२ वर्णित हैं-(१) आचरण करने कराने एवं दीक्षा प्रदायक आचार्य (२) पठन-पाठन की व्यवस्था रखने वाले उपाध्याय (३) जटाओं में लीख, जंआ, छोटी-छोटी मरी मछलियाँ, कीड़े और महान् पञ्चाग्नि तप तपने वाले तपस्वी' (४) शिक्षा ग्रहण करने वाले शैक्ष्य (५) रोगादि से ग्रस्त ग्लान (६) वृद्ध मुनियों के समुदाय रूप गण (७) दीक्षा प्रदत्त करने वाले आचार्य के शिष्य समूह रूप कुल (८) गृहस्थ, क्षुल्लक [ क्षुल्लक कोपीन तथा खण्ड वस्त्र (उत्तरीय) धारण करते थे और पीछी एवं कमण्डल रखते थे ], ऐलक [ केवल कोपीन पहनते थे और साधु की भाँति पीछी एवं कमण्डल रखते थे ] तथा मुनियों के समुदाय रूप संघ (६) चिरकाल से दीक्षित गुणी मुनि रूप और निर्वाण को सिद्ध करने से साधु और (१०) लोकप्रिय मनोज्ञ । पद्म पुराण में अर्हन्त, सिद्ध; आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँच प्रकार के परमेष्ठियों का उल्लेख हुआ है। मुनियों के अन्य प्रकार निम्नवत् हैं :
(१) यति : 'यम्' धातु से 'ति' प्रत्यय होने पर यति शब्द की उत्पत्ति हुई है। यति का अर्थ नियमित मन वाला। ये साधुजन सदा यही प्रयास करते थे कि संसार के समस्त जीव सदा सुखी रहें, इसी लिए इन्हें यति (यतते इति यतिः) संज्ञा से सम्बोधित करते थे।
(२) पारिवाजक : 'परि' उपसर्गपूर्वक वज्र धातु से 'अ' प्रत्यय होने से परिव्रज्य शब्द की व्युत्पत्ति हुई है, उसी में पुनः 'अण्' प्रत्यय होकर पारिव्रज्य शब्द १. मूलाचार ८८६ २. हरिवंश ६४।४२-४४ ३. पद्म १०६१८६
महा ७०।३२३-३२७; हरिवंश ६१२४; पद्म ४।१२७-१२८ ५. पद्म ७८।६५ ६. वही १०६।८६ ७. वही ८६१०४ ८. महा ६१६६
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