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धार्मिक व्यवस्था
(२) धर्म : जैन पुराणों में वर्णित है कि जो जीव और पुद्गलों के गमन में सहायक हो उसे धर्म कहते हैं। उदाहरणार्थ, मछली के चलने में जल सहायक होता है; उसे प्रेरित नहीं करता उसी प्रकार धर्म भी गमन में सहायक होता है, उत्प्रेरित नहीं करता।
३) अधर्म : जो पूर्ववत् जीव और पुद्गल को स्थित होने में सहयोगी कारण हो उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं। उदाहरणार्थ, वृक्ष की छाया पुरुष को ठहराती है, उस व्यक्ति को प्रेरित नहीं करती। उसी प्रकार अधर्म भी अधर्म स्थिर (रुकने) का कारण होता है, उसे प्रेरणा नहीं देते ।२
धर्म और अधर्म दोनों ही द्रव्य अपनी इच्छा से गमन करते हैं और ठहरते हुए जीव तथा पुद्गल के गमन करने और ठहरने में सहायक होकर प्रवृत्त होते हैं, स्वयं किसी के प्रेरक नहीं होते हैं।'
(४) आकाश : जैन पुराणों में उल्लेख आया है कि जो जीवादि पदार्थों को ठहरने के लिए स्थान प्रदान करता है, उसे आकाश की संज्ञा प्रदत्त है । वह आकाश स्पर्शरहित, अमूर्तिक, सर्वत्र व्याप्त और क्रियारहित है।
(५) काल : आलोचित जैन पुराणों के वर्णनानुसार रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श से रहित व लघुता तथा गुरुता और वर्तना लक्षण को काल कहते हैं। यह वर्तना काल तथा काल से भिन्न जीव आदि पदार्थों के आश्रय रहती है और सब पदार्थों का जो अपने-अपने गुण तथा पर्याय रूप परिणमन होता है उसमें सहकारी कारण होती है जिस प्रकार कुम्हार के चक्र भ्रमण में उसके नीचे लगी हुई कील कारण होती है, उसी प्रकार कालद्रव्य भी सब पदार्थों के परिवर्तन में कारण होता है। हरिवंश पुराण के अनुसार परस्पर के प्रवेश से रहित कालाणु पृथक्-पृथक् समस्त लोक को व्याप्त कर राशि रूप में स्थित है । वहिरंग निमित्त काल द्रव्य है । भूत, भविष्य एवं वर्तमान रूप-तीन प्रकार का समय होने से वे कालाणु तीन प्रकार के मान्य हैं और अनन्त समय के उत्पादक होने से अनन्त भी कहे जाते हैं । कारणभूत
१. महा २४।१३३-१३५; हरिवंश ५८१५४ २. वही २४।१३३-१३७; वही ५८१५४ ३. गतिस्थितिमतामेतौ गतिस्थित्योरुपग्रहे ।
धर्माधमौ प्रवर्तेते न स्वयं प्रेरको मतौ ॥ महा २४।१३४ ४. महा २४।१३८; हरिवंश ५८।५४ ५. वही २४।१३६-१४०; वही ७।१, ५८।५६; पद्म २०१७३-८२
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