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धार्मिक व्यवस्था
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स्थिरता, जिनायतन आदि धर्म क्षेत्रों में रमण, उत्तम भावनाएँ तथा शंकादि दोषों से रहित - ये सब सम्यग्दर्शन को शुद्ध करने के साधन हैं । महा पुराण में उल्लिखित है कि वीतराग, सर्वज्ञदेव, आप्तोयज्ञ, आगम और जीवादि पदार्थों का अत्यधिक निष्ठा से कृत श्रद्धान सम्यग्दर्शन का बोधक है । जीवादि सप्त तत्त्व, तीन मूढ़ता तथा आठ अंग सहित यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । प्रशम, संवेग, अस्तिकाय और अनुकम्पा - ये चार इसके गुण हैं और श्रद्धा, रुचि, स्पर्श और प्रत्यय — ये चार उसके पर्याय हैं । इसके - निःशंकित, निःकांक्षिता, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, वात्सल्य, स्थितिकरण और प्रभावना - आठ अंग हैं । इसकी सम्पन्नता से जीवों को इस संसार में सर्वस्व की उपलब्धि होती है । "
( २ ) सम्यग्ज्ञान : सर्वज्ञ के शासन में कथित विधि का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान का बोधक है ।
( ३ ) सम्यक् चारित्र : पूर्वोक्त विधियों के अनुकूल आचरण को सम्यक्चारित्र नाम प्रदत्त है । इन्द्रिय-निग्रह, वचन एवं मन पर नियंत्रण, अहिंसा, कान एवं मन के आह्लादिक, स्नेहपूर्ण, मधुर, सार्थक तथा कल्याणकारी वचन; अदत्त वस्तु के ग्रहण में वचन मन एवं काय से निवृत्ति एवं न्यायपूर्ण वस्तु को ग्रहण करना, ब्रह्मचर्य, दान, विनय, नियम, शील, ज्ञान, दया, दम तथा मोक्षार्थ ध्यान आदि सम्यक्चारित्र संज्ञा से अभिहित किये जाते हैं । श्रावक तथा मुनि के आचार पर आधारित सम्यक्चारित्र के दो भेद किये जा सकते हैं ।
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(iii) फल : महा पुराण में वर्णित है कि उपयोग की शुद्धता से ही जीवबन्धन के कारणों को विनष्ट करता है । इसके विनाश से उसे संवर एवं निर्जरा का अनुभव होने लगता है । इनकी पूर्णता पर जीव को मुक्ति या मोक्ष की उपलब्धि होती है । पद्म पुराण में विवृत है कि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की आराधना के अनन्तर अन्त में समाधि के माध्यम से देवत्व की प्राप्ति होती है । "
(iv) तीर्थंकरत्व प्राप्ति के साधन : तीर्थंकर की प्राप्ति अधोलिखित सोलह
१.
महा ६ । १२१-१२४
२.
पद्म १०५।२१५
३. वही १०५।२१५-२२४
४. महा २१।१६
५.
पद्म ६।३३४
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