________________
३५४
जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
उपायों के चिन्तन से होती है' : (१) दर्शनविशुद्धि, (२) विनयसम्पन्नता, (३) शीलव्रतेष्वनीतचार, (४) संवेग, (५) त्याग, (६) तप (७) साधुसमाधि, (८) वैयावृत्य - (६) आवश्यका परिहाणि, (१०) अर्हद्भक्ति, (११) आचार्यभक्ति, (१२) बहुश्रुतभक्ति, (१३) प्रवचनभक्ति, (१४) अभीक्ष्णज्ञोपयोग (१५) मार्ग प्रभावना एवं (१६) प्रवचनवत्सलत्व ।
•
तीर्थंकरत्व की प्राप्ति से जीव संसारी अवस्था में भी बहुत प्रभावशाली होता है । पृथ्वी स्वर्णमयी हो जाती है। तीर्थंकर के आठ प्रतिहार्य और चौंतिस महातिशय प्रकट होते हैं, जो हजारों सूर्यों से भी अत्यधिक देदीप्यमान होता है । संसार में शान्तिपूर्ण वातावरण रहता है, व्याधि-विनाशक, दीप्ति प्रदायक है और इन्द्र अभिषेक करते हैं ।" जैन दृष्टि से प्रत्येक भव्य जीव में तीर्थंकरत्व प्राप्ति की सामर्थ्य विद्यमान होती है । अपनी साधना द्वारा वह तीर्थंकरत्व को प्राप्त कर सकता है ।
(व एवं श) पुण्य और पाप : जैन कर्मवाद के अनुसार संसार का प्रत्येक कार्य कर्मजन्य नहीं होता बल्कि उनमें से कुछ घटनाएँ पौद्गलिक हैं, कुछ कालजन्य, कुछ स्वाभाविक, कुछ आकस्मिक या संयोगवश एवं कुछ वैयक्तिक अथवा सामाजिक प्रयत्नजन्य होती हैं । जैन कर्मवाद विशुद्ध व्यक्तिवादी है । कर्म दो प्रकार के होते हैं— शुभ और अशुभ। शुभ कर्म से पुण्य बन्ध उपलब्ध होता है तो अशुभ कर्म से पाप । इस प्रकार पुण्य एवं पाप शुभ एवं अशुभ कर्मों के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है ।" महा पुराण में वर्णित है कि सम्यक्त्व ज्ञान, चारित्य तथा तप द्वारा पुण्य का उदय होता है ।" इसी पुराण में पाप के विषय में उल्लिखित है कि मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद तथा कषाय से पाप का बन्ध उत्पन्न होता है । हरिवंश पुराण में पाँच प्रकार के पाप का उल्लेख आया है - हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील तथा परिग्रह ।" इस प्रकार सप्ततत्त्वों में पुण्य और पाप को संयुक्त करने पर नौ पदार्थ हो जाते हैं ।
१.
पद्म २।१६२
२. वही १४।२६१-२६२
३. वही ८०1१४-१६
४
मोहन लाल मेहता -- जैन धर्म दर्शन, वाराणसी, १६७३, पृ० ४७७-४८०
५.
महा ७४|४८७
६.
महा ७४|४८६
७. हरिवंश ३१८६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org