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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन तीव्र होते हैं । आस्रव के दो भेद हैं-जीवाधिकरण आस्रव और अजीवाधिकरण आस्रव ।
(i) जीवाधिकरण आस्रव : इसके प्रारम्भ में तीन भेद-संरम्भ, समारम्भ तथा आरम्भ हैं। इनमें प्रत्येक के कृत, कारित, अनुमोदिता (मनोयोग, वचनयोग, काययोग) और कषाय (क्रोध, मान, माया एवं लोभ)--कुल नव परस्पर गुणित होने पर छत्तीस-छत्तीस भेद होते हैं। तीनों को संयुक्त करने से कुल एक सौ आठ भेद होते हैं।
ii) अजीवाधिकरण आस्रव : दो प्रकार की निर्वर्तना (मूल तथा उत्तर), चार प्रकार का निक्षेप (सहसा, दुष्प्रमृष्ट, अनाभोग तथा अप्रत्यवेक्षित), दो प्रकार का संयोग (भक्तपान तथा उपकरण), तीन प्रकार का निसर्ग (वाक्, मन, तथा काय) ये अजीवाधिकरण आस्रव के भेद माने गये हैं।'
(द) बन्ध : जीव और कर्म के परस्पर सम्बन्ध होने को बन्ध कहते हैं। महा पुराण में मिथ्यादर्शन, अविर ति, प्रमाद, कषाय और योग को बन्धन का कारण कथित है। पद्म पुराण में वर्णित है कि क्रोध, मान, माया तथा लोभ-ये चार कषाय महाशत्रु हैं । जीव संसार में इनके द्वारा भ्रमण करता है । आस्रव और बन्ध संसार के कारण हैं। कर्मसिद्धान्त विषयक प्रकरण में इसका विस्तारशः विवेचन प्रस्तुत किया जायेगा । आस्रव और बन्ध संसार के कारण हैं।
(य) संवर : आस्रव का रुक जाना संवर है । इसके दो भेद हैं : भाव संवर एवं द्रव्य संवर।
(i) भावसंवर : संसार की कारणभूत क्रियाओं का अवरुद्ध होना भाव संवर है।
(ii) द्रव्यसंवर : कर्म रूप पुद्गल द्रव्य के ग्रहण का विच्छेद होना द्रव्यसंवर है । तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, पाँच चारित्र और बाईस
१. हरिवंश ५८।८३ २. वही ५८८४-८५ ३. वही ५८८६-६० ४. महा १७।२२; महा पुरोण, भाग २, पृ० ४६४ ५. पद्म १४।११० तुलनीय--दशवकालिक ८।३६-३८
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