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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन कालाणुओं से समय की उत्पत्ति होती है।'
काल के भेद : इसके दो प्रकार हैं-व्यवहार काल और निश्चयकाल । व्यवहार काल से ही निश्चय काल का निर्णय होता है, क्योंकि मुख्य पदार्थ के रहते हुए ही वाह्नीक आदि गौण पदार्थों की प्रतीति होती है ।२ लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित लोकप्रमाण (असंख्यात) अपने अणुओं से इसका ज्ञान होता है और काल के वे अणु रत्नों की राशि के समान परस्पर में एक दूसरे से नहीं मिलते, सब पृथक्-पृथक् ही रहते हैं।' परस्पर में प्रदेशों के न मिलने से यह काल द्रव्य का नामकरण अकाय (प्रदेशी) हुआ है।
___ काल के अन्य भेद के अनुसार यह दो प्रकार का होता है : संख्यात (संख्येय) काल और असंख्यात (असंख्येय) काल । संख्यात काल की संख्या या समय निश्चित रहता है, उदाहरणार्थ, मास, वर्ष, अट्ट आदि। परन्तु जो वर्षों की संख्या से रहित है उसे असंख्येय काल कहते हैं, उदाहरणार्थ, पल्य, सागरकल्प तथा अनन्त आदि ।'
३. सप्ततत्त्व एवं नौ पदार्थ : जैन पुराणों में सप्त तत्त्व एवं नौ पदार्थों की विवेचना अधोलिखित प्रकार से की गयी है :
[i] तत्त्व का अर्थ : तद् शब्द से त्व प्रत्यय होने पर तत्त्व शब्द निर्मित हुआ है। तत्त्व का अर्थ किसी वस्तु का भाव या धर्म कथित है। जिस वस्तु का जो भाव है वह उसका तत्त्व है। प्रयोजनभूत वस्तु के स्वभाव से तत्त्व का बोध होता है । परमार्थ में एक शुद्धात्मा ही प्रयोजनभूत तत्त्व है । वह संसारावस्था में कर्मों से बँधा हुआ है । उसको उस बन्धन से मुक्त करना इष्ट है।
. [ii] तत्त्व : प्रकार एवं स्वरूप : जैन दर्शन में सात तत्त्व मान्य हैं : (१) जीव; (२) अजीव, (३) आस्रव, (४) बन्ध, (५) संवर, (६) निर्जरा और (७) मोक्ष। इनमें पाप और पुण्य को सम्मिलित करने पर उन्हें नौ पदार्थ
१. हरिवंश ७७-११ २. महा २४।१४१ ३. वही २४।१४२ ४. वही २४।१४३ ५. हरिवंश ७।१६-३१; महा ३।२२२-२२७ ६. तद् भावस्तत्त्वम् । सर्वार्ध सिद्धि २।१।१५०।११ ७. जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । तत्त्वार्थसूत्र १४
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