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धार्मिक व्यवस्था
सम्बोधित करते हैं। ये तत्त्व केवल जीव और पुद्गल रूप हैं, क्योंकि यथार्थतः अपने द्रव्य क्षेत्रादि के द्वारा कर्ता तथा कर्म के अन्यत्व हैं अनन्यत्व नहीं है। आस्रवादि (पाँच या सात तत्त्व) जीव व अजीव के पर्याय हैं। जीव और अजीव तत्त्वों की विवेचना पूर्व ही कर चुके हैं। यहाँ पर अन्य तत्त्वों की विवेचना प्रस्तुत है।
(स) आस्रव : कर्मों के आने को आस्रव कहते हैं। इसके द्वारा कर्म पुद्गलों का आस्रवण होता है। शरीरधारी जीव की मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियाएँ कर्म पुद्गलों को आकृष्ट करती हैं। मन, वचन, काय की क्रिया को योग कहते हैं। योग ही आस्रव का कारण होने से आस्रव कथित है। हरिवंश पुराण में काय, वचन और मन की क्रिया को योग अभिधा से अभिहित किया गया है । वह योग ही आस्रव कहलाता है। इसके शुभ योग शुभास्रव और अशुभयोग अशुभास्रव के कारण होते हैं।
इसी पुराण के अनुसार आस्रव के स्वामी दो हैं : सकषाय (कषायसहित) और अकषाय (कषायरहित) । इसी प्रकार आस्रव के भी दो भेद हैं-साम्परायिक आस्रव और ईर्यापथ आस्रव । मिथ्यादृष्टि से सूक्ष्मकषाय गुणस्थान तक के जीव सकषाय हैं और वे प्रथम साम्परायिक आस्रव के स्वामी हैं तथा उपशान्तकशाय से सयोग केवली तक के जीव अकषाय हैं और वे ईर्यापथ आस्रव के स्वामी हैं। पांच इन्द्रियाँ, चार कषाय, हिंसा आदि पाँच अव्रत और पच्चीस क्रियाएँ—ये साम्परायिक आस्रव के द्वार हैं।' पच्चीस क्रियाएँ इस प्रकार हैं-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, प्रयोग, समादान, ईर्यापथ, प्रादोषिकी, कायिकी, क्रियाधिकारिणी, पारितापिकी, प्राणातिपातिकी, दर्शन, स्पर्शन, प्रत्यायिकी, समन्तानुपातिनी, अनाभोग, स्वहस्त, निसर्ग, विदारण, आज्ञा व्यापादिकी, अनाकाँक्षा, प्रारम्भ, पारिग्राहिकी, माया, मिथ्या और अप्रत्याख्यान ।
जीवों के परिणाम मन्द, मध्यम एवं तीव्र होने से आस्रव भी मन्द, मध्यम एवं
१. नियमसार ५।१२।१; उत्तराध्ययन २८।१४ २. पञ्चाध्यायी ३।१५२ ३. पंचास्तिकाय १२८-१३० ४. हरिवंश ५८।५७ ५. वही ५८१५८-६० ६. वही ५८।६१-८२
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