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आर्थिक व्यवस्था
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अधिकांशतः व्यक्ति स्वजीविकार्थ कृषि पर ही निर्भर हैं। पर्वतीय एवं ऊँची-नीची भूमि को समतल कर, जंगलों को साफ कर एवं भूमि को खोद कर कृषि कार्य सम्पन्न किया जाता है। जैन पुराणों के लिए क्षेत्र शब्द व्यवहृत हुआ है एवं खेत (भूमि) को हल के अग्रभाग से जोतते थे। हमारे पुराणों के रचनाकाल में हल प्रतिष्ठा का द्योतक माना जाता था। जिसके पास जितनी अधिक संख्या में हल होते थे, वह व्यक्ति उतना ही अधिक सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित माना जाता था । भरत के पास एक करोड़ हल होने का उल्लेख उपलब्ध है।' जनेतर ग्रन्थों में हल के अतिरिक्त अन्य कृषि यन्त्रों में हेंगा (मत्य और कोटीश), खनित्र (अवदारण), गोदारण (कुन्दाल), खुरपी, दात्र, लवित्र (असिद), हँमिया आदि का प्रयोग करने का उल्लेख हुआ है।
जैन पुराणों में खेतों के दो प्रकारों का वर्णन उपलब्ध होता है : (१) उपजाऊ-उपजाऊ भूमि में बीज बोने से अति उत्तम फसल उत्पन्न होती थी। (२) अनुपजाऊ---ऊसर या खिल (अनुपजाऊ) भूमि (खेत) में बोया गया बीज समूल नष्ट हो जाता था। जैनेतर साहित्य से ज्ञात होता है कि ऊसर भूमि को कृषि योग्य बनाने के लिए राज्य की ओर से पुरस्कार प्रदान दिया जाता था। जैनेतर अन्य अभिधान-रत्नमाला में मिट्टी के गुणानुसार साधारण खेत, उर्वर खेत सर्वफसलोत्पादक खेत, कमजोर खेत, परती भूमि, लोनी मिट्टी का क्षेत्र, रेगिस्तान, कड़ी भूमि, दोमट मिट्टी, उत्तम मिट्टी, नयी घासों से आच्छादित भूमि, नरकुलों आदि से संकुल भूमि आदि के लिए पृथक्-पृथक् शब्द व्यवहृत हुए हैं। १. महा १६।१८१; तुलनीय-विष्णु पुराण १।१३।८२; बृहत्कल्पभाष्य ४।४८६१ २. क्षेत्राणि दधते यस्मिन्नुत्खात् लाङ्गलाननैः । पद्य २।३, ३।६७; हरिवंश
७।११७ ३. पद्म ४।६३; महा ३७१६८ ४. लल्लनजी गोपाल-पूर्वमध्यकालीन उत्तर भारत में कृषि व्यवस्था (७००
१२००), राजबली पाण्डेय स्मृति ग्रन्थ, देवरिया, १६७६, पृ० २६५ ५. उर्वराभ्यां वरीयोभिः यः शालेयैरलंकृतः । पद्य २७ ६. ऊषरक्षेत्रनिक्षिप्तशालिनश्यति मूलतः । हरिवंश ७।११७
खिलेगतं यथाक्षेत्रे बीजमल्पफलं भवेत् । पद्य ३७० ७. नारद स्मृति १४।४ ८. लल्लनजी गोपाल-वही, पृ० २५६ २१
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