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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
माता, पिता, धन और भाई आदि को त्याग कर अकेला ही जाता है। क्योंकि यह जीव अकेला ही उत्पन्न होकर मृत्यु भी एकाकी प्राप्त करता है । यह प्राणी जिस योनि में जन्म ग्रहण करता है, उसी से वह स्नेह भी करने लगता है। इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी अपायों से आत्मा की सुरक्षा ही आत्मा का पालन करना है।' जीवों के परिणाम मन्द, मध्यम और तीव्र होते हैं, इसलिए हेतु में भेद होने से आस्रव भी मन्द, मध्यम और तीव्र होता है । महा पुराण में आत्मा से कहा गया है कि हे आत्मन् । तू आत्मा के हितकर मोक्ष मार्ग में दुरात्मता को त्याग कर अपने आत्मा के द्वारा अपने ही आत्मा में परमात्मा रूप अपने आत्मा को ही स्वीकार कर ।।
(४) जीव और आत्मा : महा पुराण में उल्लिखित है कि जिसमें चेतना पायी जाए वह जीव का बोधक है । वह अनादि, निधन, ज्ञाता, द्रष्टा, कर्ता, भोक्ता और शरीर के प्रमाण के बराबर है। आत्मा है, क्योंकि उसमें ज्ञान का सद्भाव है, आत्मा अन्य जन्म ग्रहण करता है क्योंकि उसका स्मरण बना रहता है और आत्मा सर्वज्ञ है, क्योंकि ज्ञान में वृद्धि देखी जाती है । पद्म पुराण के वर्णनानुसार-अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्तवीर्य और अनन्तसुख-यह चतुष्टय आत्मा का निज स्वरूप है। हरिवंश पुराण में उल्लिखित है कि इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख और दुःख--ये सब चिदात्मक हैं, ये ही जीव के लक्षण हैं क्योंकि इनसे ही जीव की पहचान होती है।
१. जीवितं...... जीवोऽयमेककः । पद्म ३१।१४५ २. एक एव भवभृत्प्रजायते मृत्युमेति पुनरेक एव तु । हरिवंश ६३।८२ ३. पद्म ७७।६८ ४. आत्रिकामुत्रिकापायात् परिरक्षणमात्मनः ।
आत्मानुपालनं नाम तदि दानी विवप्महे ।। महा ४२।११३
हरिवंश ५८।८३ ६. आत्मंस्त्वं परमात्मानम् आत्मन्यात्मानमात्मना ।
हित्वा दुरात्मतामात्यनीनेऽध्वनि चरन् कुरु ॥ महा ४६।२१५ ७. चैतनालक्षणो जीवः सोऽनादिनिधनस्थितिः ।
ज्ञाता द्रष्टा च कर्ता च भोक्ता देहप्रमाणकः ॥ महा २४।६२ ८. अस्त्यात्मा बोधसद्भावात्परजन्मास्ति तत्स्मृतेः ।
सर्वविच्चस्ति धीवृद्धेस्त्वदुपज्ञभिद त्रयम् ।। महा ५४१२६५ अनन्तं दर्शनं ज्ञानं वीर्यं च सुखमेव च ।
आत्मनः स्वभिदं रूपं तच्च सिद्धेषु विद्यते ।। पद्म १०५।१६१ १०. इच्छा द्वैषः प्रयत्नश्च सुखं दुःखं चिदात्मकम् ।
आत्मनो लिङ्गमेतेन लिङ्गयते चेतनो यतः ॥ हरिवंश ५८।२३
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