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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
और-नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव-इन चार निक्षेपों से होता है । पुद्गल आदिक द्रव्य अपने-अपने लक्षणों से भिन्न हैं और सामान्यतः सभी उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य रूप त्रिलक्षण से संयुक्त हैं।'
गुण के विषय में पद्म पुराण में उल्लिखित है कि एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय जीवों में बिना किसी विरोध के 'सत्त्व' सत्ता नामक गुण रहता है और वह अपने प्रतिपक्ष विरोधी तत्त्वों सहित होता है।' उत्तराध्ययन में एकत्व, पृथक्त्व, संख्या; संस्थान, संयोग और विभाग-ये पर्याय के लक्षण वणित हैं।
[i] द्रव्य के प्रकार : जैन धर्म में कुल छः द्रव्य उपलब्ध होते हैं, जिनका उल्लेख जैन पुराणों ने किया है। ये छः द्रव्य अग्रलिखित हैं--जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल । इनमें से जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा आकाश ये पांच द्रव्य अस्तिकाय और बहुप्रदेशी हैं। काल द्रव्य एक प्रदेशी है, जिससे इसकी परिगणना पंचास्तिकायों के अन्तर्गत नहीं की जाती है। चेतन और अचेतन की दृष्टि से द्रव्य के मुख्य दो प्रकार हैं : जीव और अजीव ।
(अ) जीवद्रव्य : जैन ग्रन्थों में जीव द्रव्य की विशद् विवेचना मिलती है । इसके विषय में विस्तारशः विवरण निम्नवत् है ।।
(१) जीव के नाम : महा पुराण में जीव के लिए पर्यायवाची शब्द व्यवहृत हुए हैं-जीव, प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान्, आत्मा, अन्तरात्मा, ज्ञ और ज्ञानी। क्योंकि जीव वर्तमानकाल में जीवित है, भूतकाल में जीवित था और भविष्यकाल में जीवित रहेगा, इसलिए इसे 'जीव' अभिधा से अभिहित करते हैं। जीव में पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास-ये दस प्राण विद्यमान रहते है, अतः यह प्राण का बोधक है। यह बार-बार अनेक जन्म ग्रहण करता है, अतएव १. सत्सङ्घयाद्यनुयोगश्च सन्त्रमादिकमादिभिः ।
द्रव्यं स्वलक्षणैभिन्नं पुद्गलादि विलक्षणम् ॥ हरिवंश २।१०८; तुलनीयपंचास्तिकाय ८११; प्रवचनसार २१७-१३; नियमसार ६ एकद्वित्रिचतुः पञ्चहृषीकेष्वविरोधतः ।
सत्त्वं जीवेषु विज्ञेयं प्रतिपक्षसमन्वितम् ॥ पद्म १०५।१४४ ३. उत्तराध्ययन २८।१३ ४. पद्म २।१५५-१५७, १०५।१४२; महा २४।८५-६१ ५. महा ३।५-७
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