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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन ५ मुद्रा : आयात-निर्यात के वस्तुओं के क्रय-विक्रय का जो माध्यम था, उस मुद्रा के लिए आलोचित जैन पुराण में 'दीनार' शब्द का प्रयोग हुआ है। दीनार एक सुवर्ण मुद्रा थी। इसके अतिरिक्त अन्य किसी मुद्रा का उल्लेख उक्त पुराणों में उपलब्ध नहीं है। यह केवल संयोग की बात है। किन्तु अन्य जैन ग्रन्थों में हिरण्य, सुवर्ण, कार्षापण, मास, अर्द्धमास, रूपक, पष्णग, पायंक, स्वर्णमाषक, कौड़ी, काकिणी, निष्क आदि मुद्राओं के उल्लेख मिलते हैं।
.. यदि दीनार जैसे सुविदित आदर्श स्वर्ण मुद्रा के व्यवहार का उल्लेख हमारे पुराण करते हैं तो यह तथ्य पुनर्विवेचन का विषय बन जाता है कि पूर्व मध्यकाल में सिक्कों का ह्रास हो रहा था और इस ह्रास का कारण व्यापार और वाणिज्य का अधःपतन था । यद्यपि हमारे पुराणों से इस विषय पर कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता तथापि प्रायः सभी जैन पुराणों में प्रयुक्त दीनार शब्द के प्रयोग के आधार पर यह प्रस्तावित किया जा सकता है कि वाणिज्य और व्यापार का ह्रास उतना नहीं हुआ था जितना कि विद्वानों ने माना है। व्यापार एवं वाणिज्य की उन्नति स्थिति का विवेचन उक्त अनुच्छेदों में हो चुका है ।
६. माप प्रणाली : जैन पुराणों से माप-प्रणाली के विषय में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं होती है, तथापि जो प्रकाश पड़ता है, उसके आलोक में निष्कर्ष यह है कि माप के लिए 'मान' शब्द व्यवहृत होता था । मान को चार भागों में विभाजित किया गया है : मेय, देश, काल और तुला ।'
१. पद्म ७१।६४; हरिवंश १८६८; महा ७०।१४६ २. द्रष्टव्य-जगदीश चन्द्र जैन-वही, पृ० १८७-१८८; गोकुल चन्द्र जैन
यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन, अमृतसर, १६६७, पृ० १६५; कैलाश चन्द्र जैन-प्राचीन भारतीय सामाजिक एवं आर्थिक संस्थाएं, भोपाल, १६७१, पृ० २८२ मेयदेशतुलाकालभेदान्मानं चतुर्विधम् । तत्रप्रस्थादिभिभिन्न मेयमान प्रकीर्तितम् ॥ देशमानं वितस्त्यादि तुलामानं पलादिकम् । समयादि तु यन्मानं तत्कालस्य प्रकीर्तितम् ॥ तच्चारोहपरीणाहतिर्यग्गौरवभेदतः । क्रियातश्च समुत्पन्न साध्यगान्मानमुत्तमम् ॥ पद्म २४।६०-६२ हरिवंश ४।३४१, ४।३२६; महा ६१७१
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