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धार्मिक व्यवस्था
[क] दार्शनिक पक्ष
जैन पुराणकारों ने अपने ग्रन्थों में जैन धर्म एवं दर्शन के सिद्धान्तों का विस्तारश: प्रतिपादन किया है। पूर्वाचार्यों से परम्परागत उपलब्ध तात्त्विक सिद्धान्तों में किसी प्रकार का परिवर्तन इन पुराणकारों ने नहीं किया । आचारमीमांसीय दृष्टि से भी यथापूर्व अहिंसामूलक प्रवृत्ति ही दृष्टिगोचर होती है, किन्तु युग और परिस्थितियों के अनुकूल पुराणकारों ने आचारशास्त्रीय नियमों- उपनियमों आदि में यथावश्यक परिवर्तन भी किये हैं । इन्हीं प्रसंगों में अन्य धर्मों के आचार विषयक नियम आदि एवं अन्य दर्शनों के तत्त्वमीमांसीय और ज्ञान या प्रमाणमीसांसीय सिद्धान्तों की समीक्षा भी की है। जैनेतर धर्म एवं दर्शन पर अधिक प्रकाश न पड़ने के कारण यहाँ मात्र जैन धर्म-दर्शन की ही विवेचना प्रस्तुत की जा रही है ।
इस प्रकार यथार्थ में 'जैन पुराणों में प्रतिपादित धर्म एवं दर्शन तथा पुराणकालीन जैन धर्म-दर्शन' जैसे विषयों पर पूर्णतया स्वतन्त्र अनुसन्धान अपेक्षित है ।
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