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ललित-कला
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कर्म संश्रया के दोष : पद्म पुराण में कर्म संश्रया के अग्रलिखित दोष हैं-- शरीर के रोमों का उल्टा उद्वर्तन करना, जिस स्थान पर मांस नहीं है, वहाँ पर अधिक दबाना, केशाकर्षण, अद्भुत, भ्रष्टप्राप्त, अमार्ग प्रयात, अतिभुग्नक, अदेशाहत, अत्यर्थ और अत्रसुप्तप्रतीपक ।"
[it] शय्योपचारिका संवाहन : पद्म पुराण में उल्लिखित है कि जो संवाहन अनेक आसनों से किया जाए वह चित्त को सुखदायक होती है और उसे ही शय्योपचारिका संवाहन कला नाम से सम्बोधित करते हैं ।
५. माला निर्माण कला : जैन पुराणों के रचनाकाल में माला निर्माण कला का महत्त्वपूर्ण स्थान था । सम्भवतः माला का व्यापार भी होता था । पद्म पुराण में माला निर्माण कला के चार प्रकारों का उल्लेख हुआ है:
[i] आर्द्र : इसमें ताजे पुष्प से माला निर्मित करते थे ।
[ii] शुष्क : इस विधि में सूखे पत्तों आदि से माला का निर्माण करते थे । [iii] तदुन्मुक्त: इसके निर्माण में चावल या जौ आदि अनाज का प्रयोग
करते थे ।
[iv] मिश्र : उक्त प्रकारों के संयुक्त विधि से माला निर्मित करते थे । पद्म पुराण में ही माल्य कला के रण प्रबोधन, ब्यूह संयोग आदि भेद भी उल्लिखित हैं ।"
६. गन्धयोजना कला : सुगन्धित पदार्थ निर्माण कला को गन्धयोजना कला नाम से अभिहित किया है । इसके - योनिद्रव्य, अधिष्ठान, रस, वीर्य, कल्पना, परिकर्म, गुणदोष विज्ञान तथा कौशल - भेद हैं ।" योनिद्रव्य से सुगन्धित पदार्थों ( तगर आदि) का निर्माण होता है । धूपबत्ती के आश्रय को अधिष्ठान कहते हैं । कषाय, मधुर, चिरपरा, कडुआ तथा खट्टा ये पाँच प्रकार के रस हैं। पदार्थों की शीतता या उष्णता से दो प्रकार के वीर्य होते हैं । अनुकूल प्रतिकूल पदार्थों का सम्मिश्रण कल्पना कहलाता है । तेल आदि पदार्थों का शोधना तथा धोना आदि परिकर्म हैं । गुण या दोष को जानना गुण-दोष विज्ञान है । स्वकीय तथा परकीय वस्तु की . विशिष्टता का ज्ञान कौशल है । "
१. पद्म २४।७८ ७८६
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वही २४/८०
३. वही २४ । ४४ - ४५
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पद्म २४।४६
वही २४।४७
वही २४ । ४८- ५१
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