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आर्थिक व्यवस्था
किसी भी समाज या सम्प्रदाय का उत्कर्ष उसकी आर्थिक सम्पन्नता एवं समुन्नति पर निर्भर करता है । व्यक्ति के भौतिक एवं सांसारिक सुख आर्थिक विकास से प्रभावित होते हैं । अतः मानव जीवन में अर्थ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अर्थाभाव के कारण मानव जीवन अभिशाप बन जाता है । ऐसी स्थित में निवृत्तमूलक जैन दर्शन के प्रतिपादक मनीषियों एवं चिन्तकों ने बल देते हुए कहा है कि सद्कार्यार्थ मनुष्य का अर्थाजन करना कर्तव्य है । आलोच्य पुराणान्तर्गत अर्थ-व्यवस्था विषयक उपलब्ध विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं ।
[क] आर्थिक उपादान आलोचित जैन पुराणों के परिशीलन से अर्थ की महत्ता, इसके उपार्जन के साधन, इसकी सुरक्षा एवं सम्वर्धन तथा समुचित भोगोपभोग पर प्रकाश पड़ता है। इससे सम्बन्धित विवरण निम्नवत् विवृत है :
१. आथिक समृद्धता : आलोच्य जैन पुराणों की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों ने प्रवृत्तिमूलक इन द्वैधी परस्पर विषम विचारधाराओं
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