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कला और स्थापत्य
[ग] मूर्तिकला
आलोच्य पुराणों के परिशीलन से तत्कालीन मूर्तिकला विषयक ज्ञान उपलब्ध
होता है जिसका विवरण निम्नवत् है ।
१. स्रोत : जैन मूर्तिकला के ज्ञानार्थक साहित्यिक स्रोत प्राचीनतम जैन शास्त्रों (अंगों एवं उपांगों ) के रूप में प्रसिद्ध जैन आगम साहित्य से प्रारम्भ होता है । किन्तु जैन मूर्तिकला या मूर्तिशास्त्र पर कोई स्वतन्त्र आगम की रचना नहीं है । सिद्धायतनों के सम्पूर्ण विवरणों में जैन मूर्तियाँ और मन्दिरों के विषय में अवश्य उल्लेख उपलब्ध हैं ।' संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल आदि भाषाओं के जैन पुराण में जैन मूर्तिशास्त्र के अनुशीलन के समृद्ध स्रोत प्राप्य होते हैं । स्तोत्रग्रन्थों के साथ-साथ आख्यान ग्रन्थों में भी इस विषय की सामग्री विद्यमान हैं । आरम्भिक ग्रन्थ मानसार के अतिरिक्त अपराजित पृच्छा, देवतामूर्ति प्रकरण, रूपमण्डप, ठक्कुर फेरु का वास्तुसार आदि शिल्प-ग्रन्थ भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, जिनमें जैन मूर्तिशास्त्र विषयक सामग्री विद्यमान है।
मथुरा के पास कंकाली टीला
२. समय : जैन मूर्ति-पूजा की प्राचीनता विषयक कोई निश्चित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है । प्रभाशंकर के अनुसार जैनियों में मूर्तिपूजा ईसा पूर्व चौथी पाँचवीं शती में ही प्रचलित हो गई थी। डॉ० काशी प्रसाद जायसवाल के मतानुसार मौर्यकाल में जैन मूर्तियाँ उपलब्ध होती थीं । खारवेल के हाथीगुंफा अभिलेख में कलिंग राज्य से जिन की मूर्ति के उपलब्ध होने का उल्लेख है । से जैन मूर्ति प्राप्त हुई है । द्वितीय शती ई० पू० से ग्यारहवीं शती ई० के मध्य बहुत-सी स्थापत्य कला विषयक सामग्री प्राप्त हुई हैं। डॉ० उमाकान्त प्रेमानन्द शाह के विचारानुसार जैन - मान्यता के अनुसार दीक्षा से एक वर्ष पूर्व एक बार जब वर्धमान अपने स्थान पर ही ध्यान मग्न थे, तब ( उनके जीवन काल में ही ) उनकी एक चन्दन ( काष्ठ ) की मूर्ति निर्मित हुई थी। इस प्रकार की अनुश्रुति बौद्धों में भी मिलती है । परन्तु यह प्रश्न विवादाग्रस्त है। तीर्थंकर की
१.
अमलानन्द घोष - वही, पृ० ४७६
२. अमलानन्द घोष - वही, पृ० ४६०
३.
४.
५.
६.
२७७
प्रभाकर ओ० सोमपुरा - वही, पृ० १७२
ज्योति प्रसाद जैन-द जैन सोरसेज़ ऑफ द हिस्ट्री ऑफ ऐंशेण्ट इण्डिया,
दिल्ली, १६६४, पृ० २३० - २३१
उमाकान्त प्रेमानन्द शाह-स्टडीज़ इस जैन आर्ट, बनारस, १६५५, पृ० ४-५ आनन्द कुमार स्वामी- हिस्ट्री ऑफ इण्डियन एण्ड इण्डोनेशियन आर्ट, न्यूयार्क, १६६५, पृ० ४३
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