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ललित कला
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[viii] ताल : प्रतिष्ठार्थक 'तल्' धातु के पश्चात् अधिकरणार्थक 'घन' प्रत्यय लगने से 'ताल' शब्द की उत्पत्ति हुई है, क्योंकि गीत, वाद्य एवं नृत्य ताल में ही प्रतिष्ठित होते हैं । लघु, गुरु, प्लुत से युक्त सशब्द एवं निःशब्द क्रिया द्वारा गीत, वाद्य और नृत्य को परिमित करने वाला काल ताल का बोधक है।' पद्म पुराण में ताल की अस्र और चतुस्र दो ध्वनियाँ उल्लिखित हैं । २
[ix] लय : भरत के मतानुसार ताल क्रिया के अनन्तर (अगली ताल क्रिया के पूर्व तक) किया जाने वाला विश्राम लय का बोध करता है। पद्म पुराण में लय के तीन भेद उपलब्ध हैं-द्रुत, मध्य और विलम्बित।
fx] अभिव्यक्ति : पद्म पुराण के उल्लेखानुसार संगीत की अभिव्यक्ति कण्ठ, शिर तथा उरस्थल है ।
[xi] पद और अलंकार : स्थायी, संचारी, आरोही तथा अवरोही वर्णों से संयुक्त होने के कारण इन चार प्रकार के पदों का उल्लेख पद्म पुराण में हुआ है। संगीत इन्हीं चार पदों में ही स्थित है। उक्त ग्रन्थानुसार संगीत का सम्यक् ज्ञान इन्हीं चार पदों एवं निम्निष्ट तेरह अलंकारों के माध्यम से होता है :
(१) स्थायी पद के अलंकार : प्रसन्नादि, प्रसन्नान्त, मध्यप्रसाद एवं प्रसन्नाघवसान आदि स्थायी पद के चार अलंकार हैं।'
(२) संचारी पद के अलंकार : इस पद के छः अलंकार-निर्वृत्त, प्रस्थित, विन्यु, प्रेवोलित, तारमन्द्र और प्रसन्न हैं।
(३) आरोही पद के अलंकार : इस पद के अन्तर्गत मात्र प्रसन्नादि नामक एक अलंकार है।
(४) अवरोही पद के अलंकार : इस पद में प्रसन्नान्त तथा कुहर नामक दो अलंकार हैं। १. कैलाश चन्द्र देव बृहस्पति-वही, पृ० २३४ २. पद्म २४।६ ३. कैलाश चन्द्र देव बृहस्पति-वही, पृ० २४२ ४. पद्म २४१६
८. वही २४।१७ ५. वही २४७
६. वही २४।१८ ६. वही २४।१०
१०. वही २४।१८ ७. वही २४।१६
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