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ललित कला
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(xii) मुरज' : मुरज मृदङ्ग का अन्य नाम है । इसे मुण्ड वाद्य के साथ
बजाया जाता था ।
(xiii) मर्दल' : पद्म पुराण में मर्दल के लिए मर्दक शब्द व्यवहुत हुआ है ।" इसे मृदङ्ग भी कहा जा सकता है ।
(३) सुषिर वाद्य : आलोचित जैन पुराणों में सुषिर वाद्य के विषय में उल्लिखत है कि मुँह से फूककर जिन वाद्यों से ध्वनि उत्पन्न करते हैं उनको सुषिर वाद्य कहते हैं ।" इनका विवरण निम्न प्रकार है :
(i) कहला : इसका निर्माण सोना, चाँदी एव ताँबा से होता था । इसकी लम्बाई तीन हाथ होती थी । यह भीतर से खोखला होता था । धतूरे के फूल के सदृश इसकी मुखाकृति होती थी । इसके मध्य में दो छिद्र रहते थे । फूंकने पर इसके मुँह से 'हा हू' ध्वनि निकलती थी । संगीतसार में इसे ' 'भूपाड़ो' संज्ञा से सम्बोधित किया गया है ।
(ii) तूर्य : दूर से इसकी ध्वनि भारतीय शहनाई के सदृश प्रतीत होती है । इसकी लम्बाई डेढ़ हाथ होती है । शनैः शनैः इसके मुख का व्यास बड़ा होता जाता है और अन्त में इसका आकार खिले हुए धतूरे के पुष्प के सदृश्य होता है । दक्षिणी भारत के मन्दिरों में उत्सव, विवाह, जुलूस एवं मांगलिक अवसरों पर यह बजाया जाता है । उत्तर भारत के शहनाई वादक के समान दक्षिण भारत में इसके प्रसिद्ध वादक हैं ।
(iii) वंश तथा बाँसुरी : पद्म पुराण में वंश शब्द का उल्लेख उपलब्ध है ।
१.
महा १२/२०७
२ . वही ५४ । १६२
३. हरिवंश ८।१५७
४.
पद्म ६।३७६
५.
हरिवंश १६ । १४३; पद्म २४।२०
६.
पद्म ५८।२८, ६।३७६; हरिवंश ५६ । १६; महा १५।१४७, १७ ११३
७.
लालमणि मिश्र - वही, पृ० १००
८.
पद्म ४३ | ३; हरिवंश ५६ । १६; महा १२ २०७, १५/४७ ६८।५४६
६. लालमणि मिश्र - वही, पृ० १०० १०१
१०.
पद्म ११०।३५
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