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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन (ix) पूष्कर' : भरत ने पुष्कर के सौ से अधिक प्रकार वणित किये हैं । जैन पुराणों में पुष्कर वाद्य का अधिक उल्लेख हुआ है। मृदंग का अन्य रूप इसे कहा जा सकता है । आधुनिक पखावज से इसकी समता की जा सकती है। पुष्कर में - क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, म, र, ल, ह- स्वरों का प्रयोग होता है।
(x) भेरी' : इसका अर्थ हिन्दी शब्द सागर में ढोल, नगाड़ा तथा ढक्का प्रदत्त है। परन्तु यह वाद्य मृदंग वर्गीय है, जो धातुनिर्मित लगभग दो हाथ लम्बी एवं द्विमुखी होती है । इसके एक मुख का व्यास एक हाथ होता है और यह चर्म से मढ़ी एवं कांसे के कड़े से युक्त डोरी से कसी होती है। इसे दाहिने ओर लकड़ी से तथा बायीं ओर हाथ से बजाते हैं। उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में विवाहोत्सव के अवसर पर एक लम्बी तुरही का प्रयोग करते हैं। इसका आकार ध्वनि विस्तारक की भाँति होता है । इसकी लम्बाई लगभग पाँच हाथ होती है और मुंह से फूंकने पर एक ही स्वर निकलता है । भेरी अवनद्ध तथा सुषिर वर्ग के अन्तर्गत परिगणित किया जाता
(xi) मृदंग : प्राचीन ग्रन्थों में मृदंग, पणव तथा दुर्दर का उल्लेख पुष्कर वाद्य के अन्तर्गत हुआ है । पुष्कर वाद्यों में मृदंग वाद्य का प्रमुख स्थान है। वैदिक काल में मृदंग का उल्लेख अनुपलब्ध है। रामायण में मुरज तथा मृदंग का उल्लेख हुआ है। कालिदास के ग्रन्थों में मर्दल, मुरज एवं मृदंग का वर्णन उपलब्ध है । भरत के काल में मृदंग तथा मुरज प्रचलित था। इसके तीन आकार हरीतकी, यवाकृति तथा गोपृच्छा हैं। इसके तीन भाग-आंकिक, ऊर्ध्वक तथा आलिङ्गन हैं। इनके दोनों मुंह चमड़े से मढ़े जाते हैं। मध्य का भाग दोनों किनारों की अपेक्षा अधिक उभरा रहता है। महा पुराण में मृदंग बजाने की विधि का वर्णन उपलब्ध है।
१. महा ३।१७४, १४।११५ २. भरत-नट्यशास्त्र, पृ० ३४-३६ ३. पद्म ४४१७२, ५८।२७; हरिवंश ८।१४१; महा १२।२०८, १३।१३ ४. लालमणि मिश्र-वही, पृ० ८६ ५. लालमणि मिश्र-वही, पृ० ८७ ६. पद्म ६।३२६; हरिवंश ४।६, २२।१२; महा १३।१७७, १७।१४३ ७. लालमणि मिश्र-वही, पृ० ८८-६१ ८. महा १२।२०४-२०६
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