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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन सम्यक समीक्षा सम्भव नहीं है। इसलिए यहाँ जैन पुराणों में उल्लिखित संगीत-कला के सिद्धान्तों के स्वरूप और प्रकारों का विवेचन किया जा रहा है :
[i] स्वर : जैन पुराणों में सप्तस्वर-षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम धैवत और निषाद्-का उल्लेख उपलब्ध है ।' कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्पष्टतः वर्णित है कि सप्तस्वर का सम्बन्ध शारीरिक अवयवों से सम्बद्ध है जिसका विवरण निम्नवत् है : कण्ठ देश में षड्ज, शिरोदेश में ऋषभ, नासिका देश में गान्धार, हृदय देश में मध्यमा, मुखदेश में पञ्चम, तालुदेश में धैवत एवं सर्वशरीर में निषाद । २ जैनेतर ग्रन्थ नाट्यशास्त्र में भी भरतमुनि ने स्वर के उक्त सप्त प्रकारों का उल्लेख किया है।' स्वर के विषय में वर्णित है कि-श्रुतियों को निरन्तर उत्पन्न करने और शब्द का अनुरणन रूप ही स्वर है । प्रत्येक स्वर दूसरे स्वर की सहायता के बिना रज्जक है। स्वरों के प्रयोग में वादी, संवादी, विवादी और अनुवादी इन चार प्रकारों का उल्लेख हरिवंश पुराण में हुआ है ।' महा पुराण में भी स्वर के शुद्ध और देशज दो प्रकार उल्लिखित हैं।' हरिवंश पुराण में स्वरों में संचार करने वाली जातियों का रोचक वर्णन हुआ है।
हरिवंश पुराण में स्वर के दो भेद हैं : वैण स्वर के अन्तर्गत श्रुति, वृत्ति, स्वर, ग्राम, वर्ण, अलंकार, मूर्च्छना, धातु और. साधारण आदि स्वर आते हैं। शारीरस्वर के अन्तर्गत जाति, वर्ण, स्वर, ग्राम, स्थान, साधारण क्रिया और अलंकार विधि आते हैं।
१. षड्जश्चाप्यूषभश्चैव गान्धारो मध्यमोऽपि च ।
पञ्चमो धैवतश्च स्यान्निषादः सप्तमः स्वरः ॥ हरिवंश १६१५३;
पद्म १७।२७७, २४।८ २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा १८६।१२३।१-३ ३. षड्जश्च ऋषभश्चैव गान्धारो मध्यमस्तथा ।
पञ्चमो धैवतश्चैव सप्तश्च निषादवान् ॥ भरत-नाट्यशास्त्र, अध्याय २८,
पृ० ४३२ ४. के० वासुदेवशास्त्री-संगीतशास्त्र, पृ० १४ ५. वादी चापि च संवादी तो विवद्यनुवादिनी । हरिवंश १६१५४ ६. महा ७५। ६१६ ७. हरिवंश १६।१६१-२६१ ८. वही १६१४६-१४८
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