________________
कला और स्थापत्य
२७१
लघु अनुकृति के रूप में घर में परिवार द्वारा उपासनार्थ इन देरासरों का निर्माण करते हैं। सूक्ष्म शिल्पांकन, पालिश आदि से इनका अलंकरण.होता है। गृहस्वामी की आर्थिक स्थिति के अनुसार इनके अलंकरण का स्तर भी हीनाधिक होता है । पाषाण या काष्ठ निर्मित-प्रत्येक जैन-मन्दिर के चारों ओर सामान्यतः प्राचीर होती है जिसके अन्तर्भाग में तीर्थंकरों के देवकोष्ठ निर्मित किये जाते हैं। इस प्रकार वर्षा एवं पानी से मन्दिर के मुख्य भाग की सुरक्षा हो जाती है।'
हिन्दू मन्दिरों की भाँति जैन मन्दिर के भी दो भाग होते हैं : मण्डप-जिसमें भक्त एकत्र होते हैं और मुख्य मन्दिर (गर्भालय)-जिसमें इष्टदेव की स्थापना होती है। इनमें मण्डप महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि पाषाण तथा काष्ठ पर कला के भव्य और विविध शिल्पांकनों के निमित्त पर्याप्त स्थान नहीं मिलता है। मण्डप की संयोजना पंक्तिबद्ध स्तम्भों पर होती है। वे तोरणों और धरनों को आश्रय प्रदान करते हैं जिन पर विस्तृत अलंकरण होते हैं और उन पर सुरुचिपूर्ण शिल्पांक्ति स्तूपी आधारित होते हैं। मण्डप में सर्वत्र निरन्तर शिल्पांकन होते हैं। समान अन्तर पर स्थित और तोरण से परस्पर सम्बद्ध बारह स्तम्भों पर एक वृत्ताकार स्तूपी की संयोजना होती है। मदल सहित शीर्ष और बड़ेरिया बाद में निर्मित किये जाने लगे, जिन्होंने भवन की स्थापत्य सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति तो की ही, साथ ही काष्ठ पर सुन्दर शिल्पांकन के लिए अत्यन्त उपयुक्त स्थान भी उपलब्ध हुआ।२।।
__ मण्डप के कई भेद हैं-(१) प्रासाद-कमल (गर्भगृह या मन्दिर का मुख्य भाग), (२) त्रिक-मण्डप (जिसमें स्तम्भों की तीन-तीन पंक्तियों द्वारा तीन आड़ी और तीन खड़ी वीथियाँ हों), (३) गूढ़-मण्डप (भित्तियों से घिरा हुआ मण्डप), (४) रंगमण्डप (सभागार), (५) सतोरण बलानक (मेहराबदार चबूतरे) । मण्डप की चौड़ाई गर्भगृह की चौड़ाई से डेढ़गुनी या पौने दो गुनी होनी चाहिए। स्तम्भों की ऊँचाई मण्डप के व्यास की आधी होनी चाहिए। जल का प्रवाह बायीं ओर या दक्षिण दिशा में हो।' जैन मन्दिरों के मण्डप (मंडावोर) के विमान (धुमट) में यक्ष-यक्षिणी या विद्यादेवी के कई स्वरूप रखे जाते हैं। मन्दिर के बाहर तीन भद्रक गवाक्ष में जैन प्रतिमा की स्थापना करने का आदेश है, जिससे ज्ञात होता है कि वह किस देवता का मन्दिर है। १. अमलानन्द घोष-वही, पृ० ४४३-४४६ २, वही, पृ० ४४७ ३. वही, पृ० ५२० ४. प्रभाशंकर ओ० सोमपुरा-वही, पृ० २०६
.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org