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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
देव प्रासाद की नींव इतनी गहरी हो कि उससे जल निकलने लगे या शिलातल निकल आये । नींव में धार्मिक अनुष्ठानों सहित धर्मशिला रखकर एवं भरकर ठोस बना दें। भूतल पर पीठ या अधिष्ठान का निर्माण किया जाए। मण्डप के तेरह अंग होते है। यह भित्ति या बाह्य दीवार है जिस पर प्रासाद के एक या अनेक मण्डपों की छत आधारित होती है। शिखर एक वर्तुलाकार छत है जो भवन पर उल्टे प्याले की तरह ऊपर की ओर उच्च होती जाती है। उसके उच्च भाग में चार अंग होते हैं-शिखर, शिखा, शिखान्त तथा शिखामणि । शिखर के ऊपरी भाग पर दण्ड सहित ध्वज स्थापित किया जा सकता है। द्वार की चौड़ाई-ऊंचाई की आधी हो। द्वार की चौखट पर यथोचित स्थान पर तीर्थंकरों, प्रतिहार-युगल, मदनिका आदि की आकृतियाँ उत्कीर्ण हों। मन्दिर का जीर्णोद्धार करते समय मुख्य द्वार स्थान्तरित न किया जाए और न ही उसमें कोई मौलिक परिवर्तत किया जाए। जितने स्थल पर जगती-पीठ या मन्दिर का निर्माण होता है उतने स्थान को जगती नाम प्रदान की गई है। जगती को आधार मानकर ही प्रासाद या मन्दिर का निर्माण होता है।
जैन पुराणों के अनुशीलन से जैन मन्दिर के निर्माण में उपर्युक्त विशेषताएं परिलक्षित होती हैं। हरिवंश पुराण के अनुसार चारों दिशाओं में चार भव्य एवं विशाल जिनालय स्थापित करना चाहिए। इसके मुख्य द्वार के अगल-बगल दो लघुद्वार रखना चाहिए। बड़े द्वार की ऊँचाई-चौड़ाई की दूनी हो । लघुद्वारों की लम्बाई ऊंचाई की दूनी हो और बड़े द्वार की आधी हो। मन्दिर में एक विशाल गर्भगृह होता है । इसकी दीवालों तथा विशाल स्तम्भों पर सूर्य, चन्द्र, उड़ते हुए पक्षी एवं हरिण-हरिणियों के जोड़े निर्मित रहते हैं। गर्भगृह में सुवर्ण एवं रत्न से निर्मित पांच सौ धनुष ऊँची, एक सौ आठ जिन प्रतिमाएँ रहती हैं। इन प्रतिमाओं के पास चमरधारी नागकुमार, यक्ष-यक्षिणी, सनत्कुमार एवं श्रुत देवी की मूर्तियाँ रहती हैं।
___आलोचित जैन पुराणों में पर्वत पर मन्दिर निर्माण की व्यवस्था प्रदत्त है।' जैन पुराणों से यह भी ज्ञात होता है कि मन्दिर के शिखर बहुत विशाल होते थे, मानों वे स्वर्ग का उन्मीलन करना चाहते हों। पद्म पुराण में मन्दिर के बाह्य एवं १. अमलानन्द घोष--वही, पृ० ५१७-५२० २. हरिवंश ५।३५४-३६५ . ३. महा ४८।१०७-१०८; हरिवंश ५१३५६ ४. वही ६।१८२; पद्म ७१।४७
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