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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
रुचिकर चित्रण जैन पुराणों में उपलब्ध होता है। पद्म पुराण के अनुसार आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने शिल्पकला के माध्यम से नगर, ग्राम एवं मकान आदि के निर्माण की शिक्षा प्रजा को प्रदान किया था ।' प्रासाद निर्माण की कला के क्रमिक विकास का विवरण पद्म पुराण में उपलब्ध है। चौदहवें (अन्तिम) कुलकर नाभिराय के समय में जब कल्पवृक्ष नष्ट हो गये, तभी उनके क्षेत्र में एक कल्पवृक्ष रह गया, जो प्रासाद अर्थात् भवन के रूप में स्थित था और अत्यधिक ऊँचा था। ऐसी सम्भावना व्यक्त कर सकते हैं कि उस समय वृक्ष ही आश्रय (रहने) के स्थान थे, जिसके नीचे पत्तों का अवरोध निर्मित किया गया होगा, आगे चलकर भित्ति का निर्माण हुआ होगा और अन्त में दीवाल का निर्मित हुई होगी। इसी का विकसित रूप प्रासाद है।
पद्म पुराण में नगर के निवासार्थ गृह', आगार (छोटे महल), प्रासाद (बड़े महल) तथा सद्म' (बड़े महल) आदि शब्दों का प्रयोग जैन पुराणों में प्राप्य है। उक्त पुराण में ही अन्यत्र उल्लेख आया है कि इनकी चूने से पुताई की जाती थी और नगर में रंग-बिरंगी ध्वजाएँ लगायी जाती थीं तथा केशर आदि मिश्रित जल से पृथ्वी का सिंचन किया जाता था। इसके अतिरिक्त काले, पीले, नीले, लाल एवं हरे पाँच रंग वाली चूर्ण से महलों की भित्तियों पर बेलबूटे चित्रण करते थे। शुभ एवं मांगलिक अवसरों पर दरवाजों पर जल से परिपूर्ण कलश रखने की व्ववस्था थी, मालाएँ बाँध कर अच्छे-अच्छे वस्त्रों को लटकाकर शोभार्थ उन्हें सुसज्जित करते थे।
[i] भवनों की विशेषतायें : महा पुराण में भवन की विशेषताओं का रुचिकर ढंग से विवेचन किया गया है। भवन के निर्माण में ऊँचे-ऊँचे शिखरों का निर्माण किया जाता था । भवन की लम्बाई-चौड़ाई के अनुसार उसमें एक' आँगन होना चाहिए।" भवनों को सफेद, नाना आकारों का धारक एवं रत्नादि उत्तमोत्तम १. पद्म ३।२५५ २. अथ कल्पद्रुमो नाभेरस्य क्षेत्रस्य मध्यगः ।
स्थितः प्रासादरूपेण विभात्यत्यन्तमुन्नतः ॥ पद्म ३८६ ३. पद्म २८५
८. पद्म १२।३६७ ४. वही ७७७
६. वही १२।३६८ ५. वही ८।२६
१०. महा ५४।२८ ६. वही २८२०
११. पद्म २।८१-८३ ७. वही १२।३६६
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