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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
आलोचित जैन पुराणों के अनुसार नगर पूर्व और पश्चिम नव योजन चौड़े और दक्षिण से उत्तर बारह योजन लम्बे होते थे । उनका मुख पूर्व दिशा की ओर होता था ।' नगरियों में १,००० चौक (चतुष्क) १२,००० गलियां (वीथियाँ), छोटेबड़े १,००० दरवाजे, ५०० किवाड़ वाले दरवाजे एवं २०० सुन्दर दरवाजे होते थे। पद्म पुराण में वर्णित है कि नगर चूने से पुते होने से सफेद महलों की पंक्ति से युक्त प्रतीत होते थे। जैन पुराणों में नगरों की समृद्धि के वर्णन उपलब्ध हैं । पद्म पुराण के अनुसार भरत के राज्य में नगर देवलोक के समान उत्कृष्ट सम्पदाओं से परिपूर्ण थे। पद्मपुराण में वर्णित है कि विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी की नगरियाँ एक से एक बढ़कर, नाना देशों एवं ग्रामों से व्याप्त, मटम्बों से संकीर्ण तथा खेट और कर्वट के प्रसार से युक्त हैं। वहाँ की भूमि भोगभूमि के समान है। झरने सदा मधु, दूध, घी आदि रसों को बहाते हैं । अनाजों की राशियाँ पर्वतों के सदृश्य है । अनाज की खत्तियों का कभी क्षय नहीं होता । वापिकाओं एवं बगीचों से आवृत्त महक बहुत भारी कान्ति को धारण करते हैं । मार्ग धूलि और कण्टक से रहित सुखद हैं । प्याऊ बड़े-बड़े वृक्षों की छाया से युक्त एवं रसों से पूर्ण हैं। महा पुराण में उल्लिखित है कि धूलि के ढेर और कोट की दीवारों से दुर्लध्य नगर दरवाजों, अट्टालिकाओं की पंक्तियों तथा बन्दरों के शिर जैसे आकार वाले बुजों से अत्यधिक सुशोभित हो रहा था। जैन पुराणों के उक्त उल्लेख अतिरंजित अवश्य हैं, तथापि नगरों की समृद्धता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
___ महा पुराण में पुर निर्माण के सात अवयव-वप्र, प्राकार, परिखा, अटारी, द्वार, गली और मार्ग-वर्णित हैं । पद्मपुराण के अनुसार नगर के चारों ओर विशाल कोट का निर्माण किया जाता था। कोट के चारों ओर गहरी परिखा खोदी जाती थी। जो अत्यधिक गहरी होती थी, जिससे इसकी उपमा पाताल से दी जाती थी।
१. पूर्वापरेण रुन्द्राः स्युर्योजनानि नवैवताः ।
दक्षिणोत्तरतो दीर्घा द्वादश प्राङमुखं स्थिताः ॥ महा १६७०; हरिवंश ५।२६४ २. महा १६६८-६६; हरिवंश ५।२६५-२६६ ३. सुधारससमासङ्गपाण्डुरागारपंक्तिभिः । पम २।३७ ४. पद्म ४७६ ५. पद्म ३।३१५-३२५ ६. महा ६३।३६५ ७. वही १६१५४-७३
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