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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
के रचना-काल में दुर्गों का महत्त्वपूर्ण स्थान था । शान्ति एवं युद्ध काल में इनका बहुविधि प्रयोग किया जाता था ।
[ii] राजधानी : दुर्ग राजा की शक्ति का परिचायक होता था । ' समराङ्गणसूत्रधार और मयमतम्' में राजधानी को उस नगर के रूप में वर्णित किया गया है, जहाँ राजा निवास करता था । अर्थशास्त्र में राजधानी के लिए 'स्थानीय ' शब्द प्रयुक्त हुआ है और राजधानी में ८०० ग्राम होते थे । * प्राचीन ग्रन्थों में राजधानी के लक्षणों का निरूपण करते हुए उल्लिखित है कि राजधानी के चतुर्दिक् परिखा, प्राकार एवं नगर द्वारों का होना अनिवार्य था तथा इसके अन्दर चौड़े राजमार्गों, सुन्दर भवनों, उपवनों एवं सरोवरों का निर्माण किया जाता था । इसके अतिरिक्त राजधानी के नगर द्वार पर सैनिक शिविर, उन्नतगोपुर, शालाओं एवं विशाल भवनों का निर्माण किया जाता था ।" डॉ० द्विजेन्द्र नाथ शुक्ल के मतानुसार जिस नगर में राजा निवास करता है उसको राजधानी की अभिधा से सम्बोधित करते हैं और अन्य नगरों का बोध शाखा नगर की संज्ञा से होता है । " शुक्राचार्य के मतानुसार राजधानी के निर्माण में अग्रलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए । सुरम्य एवं समतल भू-भाग पर राजधानी या नगर का निर्माण करना चाहिए; जो विविध प्रकार के वृक्षों, लताओं एवं पौधों से आवृत्त हो, जहाँ पर पशुपक्षी एवं जीव-जन्तुओं की सम्पन्नता हो, भोजन एवं जल सुलभ हो सके, बाग-बगीचे, हरियाली प्राकृतिक सौन्दर्य दर्शनीय हों, समुद्रतट पर गमनशील नौकाओं के यातायात को दृष्टिगत किया जा सके और वह स्थान पर्वत के समीप हो ।
जैन पुराणों के अनुसार कोट - प्राकार, गोपुर, अट्टालिका, वापिका, बगीचों आदि से सुशोभित राजधानियाँ होती थीं। आलोच्य जैन पुराणों में भी राजधानियों के नगरों में वही आदर्श उपलब्ध है जैसा कि शुक्रनीति में वर्णित है । पद्म पुराण में पी० सी० चक्रवर्ती - आर्ट ऑफ द वार इन ऐंशेण्ट इण्डिया, ढाका, १६४१, पृ० १२७
१.
समराङ्गणसूत्रधार, पृ० ८६
२.
३. मयमतम्, अध्याय १०
8.
अर्थशास्त्र १७।१।३
५. शुक्र, अध्याय १; मयमतम् अध्याय १; मानसार अध्याय १
द्विजेन्द्र नाथ शुक्ल - वही, पृ०६६
६.
७. शुक्रनीति, प्रथम अध्याय
८. महा १६।१६२; पद्म ३।३१६-३१७
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