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कला और स्थापत्य
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[ख] वास्तु एवं स्थापत्य कला 'वास्तु' शब्द की जो व्याख्या प्राचीन आचार्यों ने की है वह भी वास्तु शास्त्र के व्यापक सम्बन्ध में बड़ी सहायक है। मानसार के अनुसार भूमि, हर्म्य (भवनआदि), यान एवं पर्यंक से 'वास्तु' शब्द का बोध होता है । वास्तु की इस चतुर्मुखी व्यापकता की सोदाहरण व्याख्या करते हुए डॉ० प्रसन्न कुमार आचार्य ने वास्तु विश्वकोश (पृ० ४५६) में लिखते हैं कि-हर्म्य में प्रासाद, मण्डप, सभा, शाला, प्रपा तथा रंग-ये सभी सम्मिलित हैं। यान आदि से स्पन्दन, शिबिका एवं रथ का बोध होता है । पर्यंक के अन्तर्गत पंजर, मचली, मंच, फलकासन तथा बाल-पर्यंक आते हैं । वास्तु शब्द ग्रामों, पुरों, दुर्गों, पत्तनों, पुटभेदनों, आवास-भवनों एवं निवेश्य-भूमि का भी वाचक है। साथ ही मूर्तिकला अथवा पाषाणकला वास्तुकला की सहचरी कही जा सकती है । अर्थशास्त्र, अग्नि पुराण तथा गरुड़ पुराण वास्तु शब्द के इस अर्थ का समर्थन करते हैं।' प्राचीन काल में वास्तु एवं स्थापत्य कला का अत्यधिक विकास हुआ था । महा पुराण में अभियन्ता (इजीनियर) के लिए 'स्थपति' शब्द व्यवहृत हुआ है। जैन आगम में वास्तुपाठकों का उल्लेख उपलब्ध है, जो कि नगरनिर्माण के लिए इधर-उधर भ्रमण किया करते थे ।' जैन पुराणों के परिशीलन से वास्तु एवं स्थापत्य कला को अध्ययन की दृष्टि से अधोलिखित भागों में विभाजित कर विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है :
१. नगर-विन्यास : प्राचीन काल से वास्तुकला में नगर-निर्माण का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। नगर-निर्माण के लिए रामायण, महाभारत, जातक, मिलिन्दपहो, युग पुराण, मयमत, मानसार, ससराङ्गणसूत्रधार आदि प्राचीन-ग्रन्थों में नगर-स्थापन, नगर-विन्यास, पुर-निवेशन, नगर-निवेशन, नगर विनिवेश, पुरस्थापन तथा नगर करण शब्दों का यथास्थान प्रयोग हुआ है। वास्तुकला और प्रासाद बनाने के लिए स्थपति (इजीनियर) होते थे। स्थपति का प्रयोग जैनेतर ग्रन्थ मानसार', मयमत और समराङ्गणसूत्रधार आदि शिल्प-शास्त्रों में हुआ है। १. द्विजेन्द्र नाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, लखनऊ, १६६८, पृ० १७ २. महा ३२।३४ ३. आवश्यकचूर्णी २, पृ० १७७ ४. उदय नारायण राय-प्राचीन भारत में नगर एवं नागरिक जीवन, पृ० २३१ ५. महा ३७११७७ ६. मानसार, अध्याय २ ७. मयमत, अध्याय ५ ८. समराङ्गणसूत्रधार, पृ० २३५
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