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शिक्षा और साहित्य
[ख] साहित्य मानव के बौद्धिक विकास का ज्ञान उसके साहित्य सृजन से होता है। प्राचीन भारतीय वाङमय में जैन साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन पुराणों के परिशीलन से साहित्य के विषय में अधोलिखित जानकारी प्राप्त होती है :
१. भाषा और लिपि : जैन पुराणों से जो सूचनाएँ प्राप्त होती हैं. उनका वर्णन वक्ष्यमाण है । पद्म पुराण के उल्लेखानुसार अजितनाथ की भाषा अर्धमागधी थी, किन्तु इनके काल में तीन भाषाएँ थीं : संस्कृत, प्राकृत तथा शौरसेनी ।' इन भाषाओं को निबद्ध करने के लिए जिन लिपियों के नाम मिलते हैं वे निम्नांकित
(i) अनुवृत्तलिपि : अपने देश में प्रचलित लिपि को अनुवृत्तलिपि कहते थे।
(ii) विकृत्तलिपि : इस लिपि को लोग अपने संकेतानुसार समझते थे। (iii) सामयिक लिपि : इसका प्रयोग प्रत्यंग आदि वर्गों में होता था।
(iv) नैपित्तिक लिपि : इसमें वर्गों के पूर्व पुष्प आदि कुछ निमित्त रख कर प्रयोग करते थे।
उक्त लिपियों का स्वरूप और गठन क्या था? इनके बारे में साक्ष्येतरों से कोई अतिरिक्त सूचना प्राप्त नहीं होती है। सम्भवतः इन लिपियों का नामकरण भाषा के स्वरूप को ध्यान में रखकर किया गया था । ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी अपेक्षा जो लिपि अधिक प्रचलित थी और जिसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे वह लिपि 'सिद्धमात्रिका' थी।
१. पद्म ५१६० २. नामाख्यातोपसर्गेषु निपातेषु च संस्कृता ।
प्राकृती शौरसेनी च भाषा यत्र त्रयी स्मृता । पद्म २४।११ ३. अनुवृत्तं लिपिज्ञानं यत्स्वदेशे प्रवर्तते ।
द्वितीयं विकृतं ज्ञेयं कल्पितं यत्स्वसंज्ञया ॥ प्रत्यङ्गादिषु वर्णेषु तत्त्वं सामयिकं स्मृतम् । नैमित्तिकं च पुष्पादिद्रव्यविन्यासतोऽपरम् ।। प्राच्यमध्यमयौधेयसमाद्रादिभिरन्वितम् । पद्म २४।२४-२६
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