________________
कला एवं स्थापत्य
२४७ कृषक धन-धान्य से सम्पन्न हों उसे विशाल-गाँव कहते हैं। प्रथम एवं द्वितीय प्रकार के गांवों की सीमा क्रमशः एक कोस (दो मील) एवं दो कोस (चार मील) होती थी। इन गाँवों के धान के खेत सदा सम्पन्न रहते थे तथा उनमें घास एवं जल भी अधिक रहता था । नदी, पहाड़, गुफा, श्मशान, क्षीर-वृक्ष (थूहर) आदि के वृक्ष, बबूल आदि के कटीले वृक्ष, वन और पुल-ये सब उन गांवों के सीमा-चिह्न कहलाते थे । गाँव के बसाने और उनके उपभोक्ताओं के योग्य विधि-विधान निर्मित करना, नवीन वस्तु के निर्माण एवं पुरानी वस्तु की सुरक्षा के उपाय, वहाँ के लोगों से बेगार कराना, अपराधियों को दण्ड प्रदान करना तथा जनता से कर वसूल करना आदि कार्य राजाओं के अधीन रहते थे। पद्म पुराण में ग्रामों की समृद्धि एवं सम्पन्नता नगरों के समान कथित है। यह वर्णन विशाल गाँवों के सन्दर्भ में है। महा पुराण में गाँव की सीमा विषयक वर्णन आया है कि गाँव इतने समीप बसे होते थे कि मुर्गा सरलता से एक गाँव से उड़कर दूसरे गाँव तक सुखपूर्वक जा सकता था। गाँवों की सीमाएँ थोड़े ही परिश्रम से फलने वाले धान के खेतों से शोभायमान होती थीं।
सैनिक मार्ग के समीपस्थ खेतों की सुरक्षा गांव के किसान सैनिकों से किया करते थे। गाँव के किसान इधर-उधर घूमते थे । गाँव के मार्ग गायों के खुरों से ऊँचेनीचे, संकरे एवं कीचड़ से युक्त होते थे। गाँव के मुखिया महाबलवान् होते थे। गाँव में झोपड़ियों के समीप फल और फूलों से युक्त लताएं होती थीं । गाँवों के लोग घी के घड़े, दही के पात्र और अनेक प्रकार के फल राजा को भेंट करते थे। इसी पुराण में अन्यत्र उल्लिखित है कि गाँव दण्ड आदि की बाधा से रहित होने के कारण सब सम्पत्तियों और वर्णाश्रम से परिपूर्ण थे तथा स्थानीय लोगों का अनुकरण करने वाले होते थे।
ग्रामों के विषय में जैन पुराणों के उक्त विचार जैनेतर साहित्यों, उत्खनन से प्राप्त सामाग्रियों, विदेशी विवरणों आदि में यथास्थान द्रष्टव्य हैं । जैनेतर विद्वान् कौटिल्य ने ग्राम-निवेश एवं ग्राम-निर्माण के विषय में बताया है कि-'ग्राम' जिनमें
१. महा १६।१६५-१६८; पद्म ३३।५६ २. ... "ग्रामाः सर्वसुखावहाः । पद्म ४७६ ३. महा ४१६४, ५४।१५ ४. महा २६।१२०-१२७ ५. वीतदण्डादिबाधत्वान्निगमाः सर्वसम्पदः ।
वर्णाश्रमसमाकीर्णास्ते स्थानीयानुकारिणाः ॥ महा ५४।१६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org